पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२८९

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१८ वोल्गासे गंगा इसीलिए मैं इसके मटमैलेपनको दूषण नहीं भूषण समझती हूँ। तुम्हारी राय क्या है कमल १३ सुरैय्या तुम्हारे ओठ मेरे ही हृदयके अक्षरोको प्रकट कर रहे हैं।” आसमानकी नीलिमाकी छाया, अतल पुष्करिणीके जलको और नील बना रही है। उस नीलिमाके गिर्द । अमल श्वेत संगमर्मरके घाट और भी श्वेत मालूम होते हैं। पुष्करिणीकी ओर हरी दूबके फर्शके बीच शिखरदार हरित सरों देखनेमें बड़े सुंदर मालूम होते हैं, खासकर इस वसन्तके मध्याह्न समयमें । दूर-दूर तक वृक्षोंकी पाँती, लता मंडप तथा चलते फौवारोंसे उद्यान सजाया हुआ है । आज शाही बाग़ तरुण तरुणियोंके वसन्तोत्सवके लिए खुला हुआ है और इस उन्मुक्त संसारमें स्वर्गीय प्राणियोंकी भौति वह घूम रहे हैं। बाके किनारे किन्तु, पुष्करणीसे दूर एक लाल पत्थरकी बारादरी के बाहर चार आदमी खड़े हैं। सभी के सिर पर एक-सी गैकी ओर जरासी निकली पगड़ी, एकसे घुट्टी तक लटकते चुने घिरावेदार बगलबैदी जामे, एकसै सफेद कमरबंद हैं। सभी के मुखपर ऐकसी मूछे हैं; जिनके अधिकांश बाल सफेद हो गए हैं। वह कुछ देर बाराकी ओर देख रहे थे, फिर जाकर चारों ओरसे खुली बारादरी में बिछे गद्देपर बैठ गए। चारों ओर नीरवता थी, इन वृद्धोंके सिवा वहाँ और कोई न था । नीरवताको भंग करते हुए किसने कहा बादशाह सलामत !" क्या फल ! इस वक्त भी हम दबरमें बैठे हुए हैं ? क्या मनुष्य कहीं भी मनुष्यके तौरपर रहने लायक़ नहीं हैं ? भूल जाता हूँ------ जलाल कहो या अकबर कहो-अथवा दोस्त कहो ।” "कितनी मुश्किल है, मित्र जलाल ! हम लोगोंको दोहरी ज़िन्दगी रखनी पड़ती है ।