पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२८८

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सुरैय्या २८७ “इस बेचारे मटमैले जलको इतना बड़ा सफर करना पड़ेगा। तुमने समुद्रको देखा है कमल ! **पिताजीके साथ उड़ीसा गया था प्यारी ! उस वक्त देखा था । कैसा होता है ? “सामने आकाश तक छाई काली तरंगित घटा ।। "इस जलके भाग्यमे वह समुद्र है। क्या वहाँ इसका मटमैला रंग रहेगा है। नहीं प्यारी | वहाँ सिर्फ एक रंग है घननील या काला ।" *किसी वक्त मैं भी समुद्र देखेंगी, यदि तुम दिखाना चाहोगे । इस जलके साथ चलनेको तैयार हूँ प्यारी सुरैय्या | तुम्हारी आज्ञा चाहिये ।' सुरैय्याने कमलके गलेमें हाथ डाल दोनों भीगे कपोलको मिला दिया, फिर कमलके उत्फुल्ल नेत्रोंकी ओर देखते हुए कहा "हमें समुद्र में चलना होगा, किन्तु इस जलके साथ नही।" **मटमैलै जलके साथ नहीं, प्यारी १३ ‘मटमैला न कहो कमल ! मटमैला यह यहीं है। जब यह आकाश से गिरा, चब क्या मटमैला था ? “नहीं, उस वक्त इसकी निर्मलता सूर्य और चाँदसे भी बढ़कर थी । देखो, इन तुम्हारी सुदर अलकको इसने कितना चमका दिया १ तुम्हारे चन्द्रश्वेत कपोलको इसने कितना मनोरम बना दिया १ आकाश से सीधे जहाँ जहाँ पा, प्यारी सुरैय्या | वहाँ इसने तुम्हारे सौन्दर्यको निखार दिया ।” “हाँ तो इसका मटमैलापन अपना नहीं है, यह इसे उनके संघर्षसे बनना पड़ा है, जो कि इसे सागर-संगमसे रोकते हैं। क्या सागरमें सीधी गिरती बँदै ऐसी मटमैली होती हैं, कमल ?" "नहीं, प्यारी !"