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वोल्गासे गंगा

नजदीक आ जाने पर भी उसने देखा, तरुणी उसकी ओर देख नहीं रही हैं। पैरोंकी आहटको रोककर वह तरुणीकी बगल दो हाथ पर जा खड़ा हो गया। तरुण एकटक थोड़ी दूर पर बहते नालेकै मटमैले पानीको देख रही थी। तरुण सोच रहा था, उसकी सहचरी अब उसकी ओर देखेगी, किन्तु युगबराबरके कितने ही मिनट बीत गये, तरुणौके अंग--नेत्र अब भी निश्चल थे। फुहारोसे झरते जलकणको भी भौहोंसे पोंछने का उसे ख्याल न था। तरुणने और प्रतीक्षा करनेमें अपनेको असमर्थ देख तरुणीके कंधे पर धीरेसे हाथ रख दिया, तरुणीने मुंह फेरा । उसकी दूर गई दृष्टि लौट आई, और उन बड़ी बड़ी काली अखिोंसे किरणें फूट निकलीं। उसके प्रकृत लाल ओठों पर मुस्कान थी, और भीतरसे दिख जाती पतली दन्त रेखा चमक रही थी । उसने तरुणके हाथको अपने हाथमे लेकर कहा ‘कमल ! तुम देर खड़े थे ?" “जान पड़ता है युगोंसे, तबसे जब कि सष्टाने अभी अमी पानीसे पृथिवीको बनाना शुरू किया था, अभी वह गीली थी, और इतनी दृढ़ न थी कि पर्वत, और वृक्षों और प्राणियों के भारको सहन कर सकती ।” जाने दो कर्मल ! तुमतो हमेशा कविता करते हो ! काश, सुरैय्या ! तुम्हारी बात सच निकलती, लेकिन जान पड़ता है, कविता मेरे भाग्यमे नही बदी है ।” | "सुरैय्या किसी दूसरी नारीको अपने साथ रखना पसद नही करेगी।” यह हृदय भी यही कहता है। किन्तु, ध्यान-मग्न हो तुम क्या सोच रही थी, मेरी सुरैय्या ।' “सोच रही थी, बहुत दूर, अहुत दूर समुद्र कितना दूर है। कमल !” सबसे नजदीक है सूरतमें, और वह एक मासके रास्ते पर है।" ' और यह जल कहाँ जाता है । बंगालकी ओर वह तो और दूर है, शायद दो महीने के रास्ते पर ।”