पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२८६

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१६-सुरैय्या काक्ष--१६०० ई. वर्षाके मटमैले पानीको घार चारों ओर फैली दिखलाई पड़ रही थी। पानी समतल भूमि पर धीरे-धीरे फैलता, ढालुओं जमीन पर दौड़ता, और नालों-नदियों में खेलती पहाड़ी नदियों के विस्तृत जलका रूप धारण कर रहा था । वृक्षोंने मानों वर्षाको अब भी रोक रखा था, उनसे बड़ी बड़ी बँदे अब भी टपाटप गिर रही थीं। वैसे वर्षा अब फुहारोंकी शकल में परिणत हो गई थी। अकेले छेकुरे ( शमी ) के दरख्तसे कुछ हटकर एक श्वेतवसना तरुणी खड़ी थी। उसके शिरकी सफेद चादर खिसक गई थी, जिससे अमरसे काले द्विधा विभक्त कैशोंके बीच हिमालयकी अरण्यानीमें बहती गंगाकी रुपहली बार खिंची हुई थी। उसके कानों के पास काले कचित काकुलोसे अब भी एकाध बूंद गिर पड़ती थी। उसके हिम श्वेत गभीर मुख पर बड़ी-बड़ी काली अखि किस दूरकी चीजका मानस प्रत्यक्ष कर रही थीं। उसके घुटनों तक लटकता रेशमी कुत भीग कर वक्षस्थलसे सट गया था, जिसके नीचे लाल अगियामे बँधे उसके नारंगीसे दोनों स्तनोंका उभार बहुत सुंदर मालूम होता था। कुर्ते घिरावैमैं भूली कमरके नीचे पायजामा था, जिसके पतले सटे निम्न भागमें तरुणीकी पैडुली की चढ़ाव उतार आकृति साफ मालूम पड़ रही थी। मिट्टीले रंगे सफेद मोजेके ऊपर लाल जूतियाँ थीं, जो भीग कर और नरम, और शायद चलनेकै अयोग्य हो गई थीं । तरुणीके पास एक तरुण आता दिखाई पड़ा। उसकी छज्जेदार पगड़ी, अचकन, पायजामा–जो सभी सफेद थे—भी भीगे हुए थे।