पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२८४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२८३
बाबा नूरदीन


- "हाँ, झूठ है चौधरी छेदाराम ! सेठ निक्कामल महलके सौ गज पर ही एक बड़ा मदर बना रहे हैं। न जाने कितने लाख लगेंगे, मैंने पिछली बार पत्थर गिरा देखा, अबकी बार देखा तो दीवार कमर भर उठ आई है। यदि सुल्तानको तोड़ना होता, तो अपनी आँखों के सामने क्यों मदर खड़ा होने देता है।

“हाँ चौधरी ! राजा-राजाओंमें लड़ाई होती है। लड़ाई में कौन किसको पूछता है । कुछ हो गया होगा उसीको लेकर हल्ला करते हैं । सौ बर्ष पहिले हमारे और-पासमें ऐसी बातें हुई थीं, लेकिन अब कहीं कुछ सुनने में आता है ?"

याद है, हम कई गाँवोंके आदमी जब मनसबदारके पड़ावपर गये थे, उसने कहा था--पहलेके सुल्तान चिड़िया-रैन-बसेरावाले थे, हमारा सुल्तान कामदीन हमारे धरमे, दुःख-सुखमे साथ रहनेवाला सुल्तान है; इसलिये वह प्रजाको लूटता नहीं, खुशहाल देखना चाहता है।"

"और, अब चाहनेकी बात नहीं, लोग-बाग चारों ओर खुशहाल दीखते हैं । साँचा:Ch

दिल्ली के बाहर सुनसान कब्रस्तान था, जिसके पास कुछ नीम और इमलीकै दरख्त थे । अगहनकी राते सर्द थीं। लकड़ीकी आगकै पास दो फकीर बैठे थे, जिनमे एक हमारे परिचित बाबा नूरदीन थे। दूसरे फकीरने अपनी सफेद दाढ़ी और मूछों पर दोनों हाथोंको फेरते हुए कहा-“बाबा ! पाँच वरसमें फिर हरियानेमे दूधकी नदियाँ बहने लगी हैं ।

'ठीक कहा बाबा ज्ञानदीन । अब किसानों के चेहरे हरे-भरे दिखलाई पड़ते हैं ।

"बावा, जब खेत हरे-भरे होते हैं तभी चेहरे भी हरे होते हैं।"

"श्रमिल-अमले तो गये, ये बनिया-महाजन और मर जाते तो चैनकी बंशी बजती ।"