पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२८१

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२८० वोल्गासे गंगा “अरे ! एक तो यही खलियानके गज देख रहो हो । दो वर्ष पहले आते तो देखते इनके चौथाई भी नहीं होते । ‘सुतर गया है, चौधरी ! | "सुतर गया है, किंतु सुल्तानकी नियतकी बरक्कत है, पडतजी । पहले हम किसान नौ-भूखे डोलते थे और घीके : रेशम तानजेब पहन घोड़े पर चलते थे। गेहूँ बिते भरका भी नहीं होने पाता था कि उनके घोड़े हमारे खेतमे आ जमते थे। कौन बोलता है हमारे गामडोके तो थही यही सुल्तान थे । इसी समय मगल चौधरीकी भाँति ही घुटनों तकक धोती, बदन पर एक मैली चौबदी, सिर पर चिपकी सफेद पी पहने दूसरा चौधरी आ गया और बीच हीमे बोल उठा- 'और चौधरी ! अब देखते नही सारी शान कहाँ चली गई ? अब बेटे दान-दानके मुहताज फिर रहे। हैं। मुझसे कह रहा था वह् बामनका क्या नाम है, चौधरी १ सिन् । 'अब न शिंब्या कहते हो, उस वक्त तो पडित शिवराम था। कह रहा था-चौघरी छैदाराम ! दो मन गेहूं देना पैसा हाथमे आते ही दाम दे दूंगा। मुंह पर नहीं करना तो मुश्किल है; लेकिन मुझे याद है, जब वह बाभनका सीधी बात भी नहीं करता था। ‘अचे छिद्दे छोड़, कोई दूसरी बात उसके मुखसे नहीं सुनी ।” | "और अब तुम हो चौधरी छैदाराम और मै चौधरी मंगलराम । भंगे और छिद्देसै ढाई वर्षों में हम कहाँ से कहाँ पहुँच गये ।” "मैं कहूँगा चौधरी | यह सब सुल्तानकी दया है, नहीं तो हम सब । छिद्दे और मंगै ही बने रहते । यहीं तो मैं कह रहा था, इन पंडतजीसे । न हमारी यह पंचायत लौटकर मिली होती, न हमारे दिन लौटते । । चौधरी मंगलराम ! तुम हायसे कलम नहीं पकड़ सकते; किंतु