पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२७७

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वोल्गासे गंगा पायजामा था। उनकी काली दाढ़ी इवाके हलके झोंकेसे हिल रही थी। बाबाने खड़े हो दोनों हाथोंको बढ़ाते हुए मधुर स्वरमें कहा-- आइये, मौलाना अबुल् श्रलाई । असूसलाम-अलैक । बाबा मौलाना के सिकुड़ते हाथोंको अपने हाथोंमें ले उनसे बालगौर हुए । मौलानानेभी वेमनसे 'बालेकुम-स्सलाम' किया । बाबाने नगे चबूतरे के पास ले जाकर कहा--- "हमारा तख्त यही नँगा पत्थर है, तशरीफ रखिये । मौलानाके बैठ जानेपर बाबा भी बैठ गये। बात पहले मौलाना ने ही शुरू की है।

  • शाह साहेब ! जब यह काफिरोकी भीड़ लगी थी, तो मैंने ठहर कर देखा था, इस तमाशेको ।”

“तमाशा भले ही कहें मौलाना ! किन्तु, काफ़िर न कहें, नूरकै कलेजेमे इससे तीर लगता है। यह हिन्दू काफ़िर नहीं तो और कौन हैं ।

  • सभीमै वही नूर समाया हुआ है, नूर और कुफ्र रोशनी और अँधेरेकी तरह एक जगह नहीं रह सकते ।।

तुम्हारा यह सारा तसव्वुफ ( वेदान्त ) इस्लाम नहीं गुमराहियत है।" । "हम आपके ख़यालों को गुमराहियत नहीं कहते, हम 'नदिया एक घाट बहुतेरे'के माननेवाले हैं। अच्छा आप सभी इन्सानों को खुदाके बच्चे मानते हैं या नहीं है। ही मानता हूँ। और यह भी कि वह मालिक सर्व-शक्तिमान् है । हाँ ।" "मौलाना ! मेरे उस सर्व-शक्तिमान् मालिक के हुक्मके बिना जब पता भी नहीं हिल सकता, तो हम और आप अलास्के इन सारे बच्चोंको काफिर कहनेवाले कौन ? अल्लाह चाहती तो सबको एक