पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२६५

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२६४ वोगासे गंगा बचा देखकर मुझे सन्तोष है। अभी हिन्दुओंके लिए कुछ आशा है ।। कुछ भी हो, अन्तिम समय तक हमें अपनी शक्ति में से एक-एक रचीको सोच-समझकर व्यय करना होगा । दूसरी नावे आती मालूम होती हैं, आचार्य । सेनानायक आल्हया, उनके आते ही सब नावोको यहाँसे चलने का आदेश कर देना। ‘बहुत अच्छा, आचार्य !—आल्हयने नम्र स्वरमें कहा। अच्छा चलो माधव, नीचे कोठरीमें चलो । किन्तु वहाँ अँधेरा है ? मैंने जान-बूझकर वहाँसे दीपक बुझा दिए ।' कुछ आगे बढ़कर-- जर हो । राधे ! 'बाबा !-एक तरुण स्त्री-कंठसे आवाज़ आई। • चकमकसै दीपक जलाना, और लोहा यक्षसे रखा है न ?? ‘अच्छा ।। फिर माधवकी ओर फिरकर वे बोले---‘भाई, कोई वैद्यराज कहे, कोई आचार्य, कोई बाबा, यह सब याद रखना मेरे लिए मुश्किल होगा ।" तुम सब मेरे बचपन के नाम चक्कू से मुझे पुकारा करो।' नही, स्त्रियोंकी आदत बदलनी मुश्किल है, इसलिए हम सब आपको बाबा चक्रपाणि पाडेयकी जगह बाबा कहेंगे ।' अच्छा, चलो । दीपक जल गया। दोनों सीढ़ियोंसे नीचे उतरे। नावका दो-तिहाई भाग पटा हुआ था, जिसके नीचे एकके पीछे एक दो छोटी कोठरियाँ थीं। एक और नावमें खाली जगह थी। दोनों एक कोठरीके भीतर घुसे । वहाँ दीपक की पीली रोशनीमें एक चारपाई दिखलाई पड़ती थी, जिसके ऊपर कठ तक सफ़ेद दुशालेसे ढंका कोई सो रहा था। चारपाईकी बग़लमें रखी एक मचियासै कोई तन्वी उठी। चक्रपाणिने कहा--भामा, कुमार हिलै-हुले तो नहीं । “नहीं, बाबा, उनका श्वास वैसे ही एक-सा चल रहा है।