पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२४७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

२४६ वोगासे गंगा भैरवीचक्र चल रहे हैं। ब्रह्मचर्य का भारी हल्ला मचा हुआ है; किन्तु परिणाम १ भैरवीचक्रमें अपनी-पराई सभी स्त्रियाँ जायज़ हैं। यही नहीं, देवताके वरदानके नामपर वहाँ माँ, बहन, बेटी तकको जायज कह दिया गया है । और परिव्राजकों, भिक्षुओंके अखाड़े अप्राकृतिक व्यभिचारके अङ्गु बन गए हैं। यदि सचमुच इस दुनियाका देखनेसुननेवाला कोई होता, तो इस वंचना, इस अंधेरको वह एक क्षणकै लिए भी बर्दाश्त न करता। | एक बार मैं कामरूप गया था। वहाँकै राजा नालन्दा के प्रेमी और महायानपर भारी अद्धा रखते थे । मैंने कहा---'महायानी बोधिसत्त्वके व्रतको मानते हैं, जिसे ब्रतमे कहा गया है कि जब तक एक भी प्राणी बन्धनमें हैं, तब तक मुझे निर्वाण नहीं चाहिए। आपके राज्यमे महाराज, इतने चण्डाल हैं, जो नगर में आते हैं, तो हाथसे डंडा पटकते आते हैं, जिसमें लोग सजग हो जायें और उनको छूकर अपवित्र न बने । वह अपने हाथों में बर्तन लेकर चलते हैं, जिसमें उनका अपवित्र बृक नगरकी पवित्र धरतीमें न पड़ जाय । कुतेकै छूनेसे आदमी अपवित्र नहीं होता और न उसका विष्ठा ही नगरको चिर-दूषित करता है; फिर क्या चण्डाल कुनै से भी बदतर हैं । | कुतैसे बदतर नहीं हैं। उसमें भी वह अंकुर, जीवन-प्रवाह मौजूद है, जो कभी विकसित होकर बुइ हो सकता है। | ‘फिर क्यों नहीं राज्यमें हुग्गी पिटवा देते कि श्रीजसे किसी चालको नगरमें डंडा या थकका बर्तन लानेकी ज़रूरत नहीं है।' यह मेरी शकिसे बाहर की चीज़ है ।। 'किसे बाहर हो, धर्म-व्यवस्था ऐसी ही बँची हुई है। 'बोधिसत्त्वोंके धर्मकी-महायानको थही व्यवस्था है ? 'लेकिन यहाँकी प्रजा महायानपर तो नहीं चलती ।। मैं गाँव, पुर सर्वत्र त्रिरत्नकी जयदुन्दुभी बजते देखता हूँ।