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दिवा


'आज मेरे साथ रहेगा।
'जरूर।'
'सारी रात?'
'जरूर !'
'तो आज मैं उनके किसी तरुण के पास नहीं रहूंगी।' कह दिवाने सूरका आलिंगन किया। इसी बीच कितने ही शिकारी तरुण-तरुणियाँ आ गईं। उनकी आवाज को सुनकर भी वे दोनों वैसे ही रोम-रोम से आलिगित खड़े रहे। उन्होंने पास आकर कहा—
'दिवा ! आज तूने सुर को अपना साथी चुना?'
‘हाँ ! और मुंह को उनकी ओर घुमाकर कहा-'देखो ये फूल सूर ने सजाये हैं।'
एक तरुणी-‘सूर ! तू फुल अच्छे सजाता है। मेरे केशों को भी सजा दे।'
दिवा— आज नहीं, आज सूर मेरा। कल।'
तरुणी- कल सूर मेरा।'
दिवा— 'कल ? कल भी सूर मेरा।'
तरुणी— रोज-रोज सूर तेरा दिवा ! यह तो ठीक नहीं।'
दिवा ने अपनी गलती को समझ कर कहा— रोज-रोज नहीं स्वसर (बहिन) ! आज और कल भर।'
धीरे-धीरे कितने ही और प्रौढ़ शिकारी आ गये। एक काला विशाल कुत्ता पास आ सूर के पैरों को चाटने लगा। सूर को अब अपनी मारी भैड़ याद आई। दिवा के कान में कुछ कह, वह दौड़ गया।

[ २ ]

लकड़ी की दीवारों और फूस से छाया एक विशाल झोंपड़ा था। पत्थर के फरसे तेज होते हैं, किन्तु उनसे इतनी लकड़ियों का काटना संभव नहीं था। उन्होंने लकड़ी के काटने में आग से भी मदद