पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२३०

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सुपर्ण यौधेय २२६ सजाया गया है, यद्यपि वह कई पीढ़ियोंमे और शायद सैकड़ों पीढ़ियों के लिये अचिन्त्य विहारके भित्ति चित्र सुंदर हैं, पाषाण-शिल्प सुन्दर हैं; किन्तु, वह गुप्त राजप्रासादका मुकाबिला नहीं कर सकते, इसलिये वह मेरे लिए उतने आकर्षक नही थे। हाँ, मेरे लिये आकर्षक थी यहाँकी भिक्षु-मंडली, जिनमें देशदेशान्तरोंके व्यक्ति बड़े प्रेमभावसे एक साथ एक परिवारकी तरह रहते, वहाँ मैंने सुदूर चीनके भित्तुको देखा, पार. सीक और यवन भिक्षुओंको देखा, सिंहल, यव, सुवर्ण द्वीपवाले भी वहाँ मौजूद थे, चम्पा द्वीप कम्बोज दीपके नाम और सजीव मूर्तियाँ वहीं सुनने और देखने में आई । कपिशा, उद्यान, तुषार, कुचाके सर्वपिंगल पुरुष भिक्षुओंके कमायको पहिने वहीं मिले। मुझे बाहरके देशों के बारे में जाननेकी बड़ी लालसा थी, और यदि यह विदेशी भिक्षु एक एक करके मिले होते, तो मैं उनके पास एक एक साल बिता देता, किन्तु यहाँ इकट्ठ इतनी संख्यामे मिल जानेके कारण दरिद्रकी निधिकी भाँति मै अपनेको सँभालने में असमर्थ समझने लगा। दिनागका नाम मैंने अपने गुरूके मुखसे सुना था। कालिदास गुप्तराज, राजतत्र, तथा उसके परम सहायक ब्राह्मण धर्मके जबर्दस्त समर्थक थे, और किस अभिप्रायसे यह मैं पहिले बतला चुका हूँ। वह दिड्नागको इस काम में सबसे जबर्दस्त बाधक समझते । वह कहते थे कि इस द्रविड़ नास्तिकके सामने विष्णु क्या तैतीस कोटि देवताओंको सिंहासन हिलता है। धर्मके नामपर राजा और ब्राह्मणोंके स्वार्थके लिये हम जो कुछ कूट-मत्रणा कर रहे हैं, उसका रहस्य उससे छिपा नहीं है। मुश्किल यह था, कि उसे बूढा वसुबधु जैसा गुरु मिल गया था । बसुबंधुको कालिदास ज्ञानवरधि कहते थे | भदन्त वसुबंधु चद्रगुप्त विक्रमादित्यकी द्वितीय राजधानी अयोध्यामे दबारीके तौर पर नहीं बल्कि स्वतंत्र सम्मानित गुरूके तौर पर कई साल रहे थे और पीछे गुसोकी नीच भावनासे निराश हो अपनी जन्म-भूमि पुरुषपुर (पैशावर) को चले गये थे। दिड्नागने लोहे के तौर या खड्गको नहीं, बल्कि उससे