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दिवा

 ‘मेरा, क्योंकि सारे जन के तरुण तुझसे चुम्बन माँगते, तू उन्हें चुम्बन देती; सारे जन के तरुण आलिंगन माँगते, तू आलिंगन देती। मृगया में चतुर, नृत्य में कुशल, शरीर में पुष्ट और सुन्दर किसी जन-तरुण की आशा को तुने भंग नहीं किया।’
‘किन्तु सूर! तू भी वैसा ही, उनसे भी बढ़कर चतुर, कुशल, पुष्ट, तरुण था और मैंने तेरी आशा को भंग किया।’
‘दिवा ! किन्तु मैने कभी आशा नहीं प्रकट की।’
‘शब्द से नहीं। बचपन में हम जब साथ खेला करते थे, तब भी तू शब्द से आशा नहीं प्रकट करता था, किन्तु दिवा समझती थी, और दिवा ने सूर को भुला दिया, क्या यह दिवा (दिन) उस चमकते सूर (सूर्य) को कभी भुलाती है? नहीं सूर ! अब दिवा तुझे नहीं भुलायेगी।’
‘तो मै फिर वही सूर और तू वही दिवा बनेगी।’
‘हाँ और मैं तेरे ओंठों को चूमुँगी।’
छोटे बच्चों की सी इन नग्न सौंदर्य-मूर्तियों ने अपने अतिरिक्त अधरों को मिला दिया, फिर दिवा ने अपने अलसी के फूल जैसे नीले नेत्रों को सूर के वैसे ही नीले नेत्रों में चुभोते हुए कहा—
’और तू मेरी अपनी माँ का बेटा, मै तुझे भूल गई!’
‘दिवा की आँखे गीली थीं। सूर ने उन्हें अपने गालों से पोंछते हुए कहा—
‘नहीं, तूने नहीं भुलाया दिवा! जब तू बड़ी हो गई, तेरी वाणी, आँखे और सारे अंग कुछ दूसरे जैसे मालूम होने लगे, तो मैं तुझसे दूर हटने लगा।’
‘अपने मन से नहीं सूर।‘
‘तो, दिवा !—’
‘नही, कह तू मुझसे अब फिर नहीं शर्मायेगा?’
‘नहीं, शर्माऊँगा। अच्छा इन फूलों को गूँथने दे।’