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वोल्गा से गंगा

सूर के पास आने पर दिवा ने मुस्कराते हुए कहा—
‘कितने सुन्दर कितने सुगन्धित हैं ये फूल है!’
सूर ने फूलों को शिलातल पर रखते हुए कहा—‘जब मैं इन्हें तेरे सुनहरे केशों में गूथ दूंगा, तो यह और सुन्दर लगेंगे।’
‘तो सूर! तू मेरे लिए इन फूलों को ला रहा है?’
हाँ, दिवा। मैंने इन फूलों को देखा, तुझे देखा, फिर याद आई जल की परियाँ।’
‘जलकी परियाँ?’
‘हाँ, बहुत सुन्दर जल की परियाँ, जो खुश होने पर सारी मनवांछाओं को पूर्ण कर देती हैं, और नाराज होने पर प्राण भी नहीं छोड़तीं।’
‘तो सूर। तू मुझे कैसी जल-परी समझता है?‘
‘नाराज होने वाली नहीं।‘
‘किन्तु मै तुझ पर कभी खुश नहीं हुई।‘
दिवा ठण्ढी साँस लेकर चुप हो गई। सूर ने फिर दुहराते हुए कहा—
‘नहीं दिवा! तू मुझपर कभी नाराज नहीं हुई। याद हैं बचपन के दिन?
‘तब भी तू शर्मीला था।’
‘किन्तु तु मुझ पर नाराज न होती थी।’
‘तब मैं तुझे अपने आप चूमती थी।’
‘हाँ, वह चूमना बहुत मीठा था।’
‘किन्तु जब ये मेरे गोल-गोल स्तन उभड़ने लगे। जब मेरे मुख को सारे जन के तरुण चाहने लगे, तब मैंने तुझे भुला दिया।’ —कह दिवा कुछ खिन्नमना हो गई।
‘लेकिन दिवा! इसमें तेरा दोष नहीं है।’
‘फिर किसका दोष?’