पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२०८

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प्रभा २०७ शब्द समाप्त भी न होने पाए थे कि एक खाँसी आई, और दो हिचकियोके बाद सुवर्णाक्षीका शरीर निश्चल हो गया। सुवर्णाक्षी गई । सुवर्णाक्षी-पुत्रका हृदय फटने लगा । वह रात-भर रौता रहा । दूसरे दिन मध्याह्न तक वह मके दाह-कर्ममें लगा रहा। फिर उसे प्रभा याद आई । वह दत्तमित्र-भवन गया। माँ-बाप समझते थे, प्रभा अश्वघोषके पास होगी । अश्वचषका हृदय रातके प्रहारसे जर्जर हो रहा था, अब और चिन्तित हो उठा। वह प्रभाके शयनकक्षमें गया। वह सभी चीज़े सँभालकर रखी हुई थीं। उसने पलगपर फैलाई सफेद चादरको हटाया। वहाँ उसने अपने चित्रको देखा। प्रभाने उसे एक आगन्तुक यवन चित्रकारसे तैयार करवाया था, और इसके लिए अनिच्छावश अश्वघोषको कितने ही घटों बैठना पड़ा था। चित्रपर एक म्लान जूहीकी माला पड़ी थी । चित्रके नीचे प्रभाकी मुद्रासै अकित लपेटा तालपत्र-लेख था । अश्वघोषने उसे उठा लिया। रस्सीके वचन पर मुहर लगी काली मिट्टी अभी सूख न थी। अश्वघोषने रस्सीको काटकर प्रभाकी मुहर लगी मिट्टीको रख लिया । लबे पत्तेको फैलाने पर प्रभाके सुन्दर अक्षरों में वहाँ पाँच पक्तियाँ थीं-- "प्रियतम, प्रभा विदाई ले रही है। मुझे सरयूकी लहरोंने बुलाया है। मै जा रही हूँ। तुमने मेरे प्रेमके लिए कोई बचन दिया हैं, याद है ? • मैं प्रभाके चिर-तारुण्य, उसके सदा एक-से रहनेवाले सौन्दर्यको दिए जा रही हैं। अब तुम्हारी आँखोंको पके बालों, इंटे दाँतों, वलित कटिवाली प्रभा कभी नहीं देखनेको मिलेगी। मेरा प्रेम, मैरा यह शाश्वत यौवन तुम्हें प्रेरणा देगा। तुम उस प्रेरणाकी अवहेलना न करना । प्रियतम, यह न ख़याल करना कि मैं तुम्हारे कुटुम्बके कलह का खयालकर आत्म-हत्या कर रही हूँ-सिर्फ तुम्हें काव्य-प्रेरणा देनेकै लिए मै अपने अक्षुण्ण यौवनको प्रदान कर रही हैं। प्रियतम ! प्रभा तुम्हारा अन्तिम मानस आलिंगन और चुम्बन कर रही है ।