पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१९८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

प्रभा 'बुद्धने अपने भिक्षु-संघको समुद्र कहा है। उस संघमें जो भी जाता है, वह नदियोंकी भाँति नाम-रूप छोड़ समुद्र बन जाता है।' और बौद्ध गृहस्य भी, प्रिये, वैसा ही क्यों नहीं करते है। "बौद्ध गृहस्थ देशके दूसरे गृहस्थोंसे छिन्न-भिन्न होकर रह नहीं सकते । आखिर उनके ऊपर परिवारका बोझ होता है ।। 'मैं तो बहुत अच्छा समझता, यदि कालकारामकै भित्तुओंकी भौति सारे नगर और जनपद ( देहात ) के लोग मैद-न्य हो जातेन कोई जातिका भेद होता, न कोई वर्णका ।। 'एक बात मैंने तुमसे नहीं कही, प्रिय ! तुम्हारे पिताने एक दिन मेरे सामने पगड़ी रख दी, और कहने लगे कि प्रभा, अश्वघोषको तू मुक्त कर दें। ‘गोया तुम्हारे मुक्त करनेपर वह अपने पुत्रको पा सकेंगे। तुमने क्या कहा, प्रभा १ 'मैंने कहा, आपकी बात मैं अश्वघोषसे कहूँगी।' और तुमने कह दिया। मुझे ब्राह्मणोंकै पाखण्डोंसे अपार घृणा है। अपार घृणासै सारा गात्र जलता है। एक ओर वह कहते हैं कि हम अपने वेद-शास्त्र-को मानते हैं। मैंने बड़े परिश्रम और श्रद्धासे उनकी सारी विद्याएँ पढ़ीं; किन्तु वह क्या मानते हैं, मुझे तो कुछ समझमें नहीं आता । शायद वह केवल अपने स्वार्थको मानते हैं । जब किसी बतकों उनकै पुरानै ऋषियोंके वचनों से निकालकर दिखलाओ, तो कहते हैं- इसका आजकल रिवाज नहीं है। रिवाजको ही मानो या ऋषि-वाक्योंको ही। यदि पुरानी वेद-मर्यादाको किसीनै तोझा, तभी न नया रिवाज चला । कायर, छरपोक, स्वार्थी ऐसोंको ही कहते हैं। बस, इन्हें मोटे बछड़ोंका मास और अपनी भूयसी-दक्षिणा चाहिए। यह कोई भी ऐसा काम करनेके लिए तैयार हैं, जिससे इनके आश्रयदाता राजा और सामन्त प्रसन्न हों ।।