पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१९४

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प्रभा . १६३ बहुत जल्द पहुँचे, और फिर सारे ही सामन्तों और व्यापारियोंमें वह चहुत प्रिय हुए। प्रभाके माता-पिता अश्वघोषको योग्यतम जामाता माननेके लिए तैयार थे। | अश्वघोषका रंगमचपर अभिनय और यवन-कन्यासे प्रेम उसके माता-पितासे छिपा नहीं रह सकता था। इसे सुनकर पिता ख़ास तौरसे चिन्तित हुए । ब्राह्मणने सुवर्णाक्षीको पहले समझानेके लिए कहा। माताने जब कहा कि हमारे ब्राह्मण-कुलके लिए ऐसा सम्बन्ध अधर्म है, तब ब्राह्मणोंके सारे वेद-शास्त्रोके ज्ञाता अश्वघोषने माँ को पुराने ऋषियोंके आचरणोंके सैकड़ों प्रमाण दिए ( जिनमें से कुछको पीछे उसने अपनी 'वज्रच्छेदिका में जमा किया, जो आज भी वज्रच्छेदिकोपनिषद् के नामसे उपनिषद्-गुटकामें सम्मलित है)। किन्तु मनै कहा-यह तो सब ठीक है, वैया, किन्तु आजकै ब्राह्मण उस पुराने आचरणको नहीं मानते ।। ‘तो ब्राह्मणोंके लिए मैं एक नया सदाचार उपस्थित करूंगा। माँ अश्वघोषकी युक्तियोंसे सन्तुष्ट नहीं हो सकती थी, किन्तु जब उसने कहा कि प्रभा और मेरे प्राण अलग नहीं रह सकते, तो वह पुत्रके पक्ष में हो गई और बोली–पुत्र, मेरे लिए इ सब-कुछ है । | अश्वघोषने एक दिन प्रभाको माँके पास भेजा । मनै रूपके समान ही गुण और स्वभावमें भी अगरी इस कन्याको देख आशीर्वाद दिया। किन्तु ब्राह्मण इसे मान नहीं सकता था। उसने एक दिन अश्वघोषसे सीधे कहा-'पुत्र, हमारा श्रोत्रियोंका श्रेष्ठ ब्राह्मण-कुल है। इमारी पचासों पीढ़ियोंसे सिर्फ कुलीन ब्राह्मण-कन्याएँ ही हमारे घरमें आया करती हैं। आज यदि इस सम्बन्धको तुम स्वीकार करते हो, तो हम और हमारी आगे आनेवाली सन्तान सदाके लिए जाविभ्रष्ट हो जायेंगे; हमारी सारी मान-मर्यादा जाती रहेगी।