पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१७५

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वोल्गासे गंगा फिलिपके पुत्र अलिकसुन्दर ( सिकंदर ) के गुरु अरस्तूको देखा। नागदत्त स्वयं भी दार्शनिक था, किन्तु भारतीय ढंगका अरस्तूकी शहंशाहपसंदीसे उसका मतभेद था तो भी वह अरस्तू के लिये भारी सम्मान लेकर मकदूनियासे बिदा हुआ। अरस्तु की सबसे बड़ी बात जो उसे पसंद आई वह यह थी, कि सत्यकी कसौटी दिमाग नहीं, जगत्के पदार्थ, प्रकृति है। अरस्तू प्रयोग तजबैको बहुत ऊँचा स्थान देता था। नागदत्त को अफ़सोस होता था कि भारतीय दार्शनिक सत्यको भनसे उत्पन्न करना चाहते हैं। नागदत्तने अरस्तू मनस्वी शिष्यको प्रशंसा उसके गुरूके मुंहसे सुनी थी, और खुद भी कई बार उससे बात-चीत की थी। उस तरुणमें असाधारण शौर्य ही नहीं बल्कि असाधारण पुरख भी थी। • नागदत्तनै अरस्तूसे एथेन्स जाकर लौट आनेके लिये छुट्टी ली थी, किन्तु, उसे क्या मालूम था कि यही उसकी यवन दार्शनिकसे अन्तिम मेंट होगी। वीरोंकी जननी गणतन्त्रकी विजय ध्वजा-धारिणी एथेन्स नगरी के भीतर वह उतनीही श्रद्धा और प्रेमके साथ प्रविष्ट हुआ, जितना कि तक्षशिलाके लिये करता | नगर फिरसे आबाद हो गया था किन्तु सोफ़ियाने बतलायाकि अब यह वह एथेन्स नहीं रहा। बैनस् ज्युपितरके मंदिर अब भी अमर कलाकारोंकी सुन्दर कृतियोंसे अलंकृत थे, किन्तु एथेन्सके नागरिकोंमे वह उत्साह, वह जीवन नहीं था, जिसे कि सौफ़ियाने देखा था। सोफियाके पिताका घर–नहीं उसकी भूमिपर •बनै घरका स्वामी कोई मकदूनियन व्यापारी था । उस घरको देखकर वह इतनी उद्विग्न हुई, कि एक दिन-रात उसकी चेष्टायें उसकी स्वाभाविक गंभीरताकै विरुद्ध होती थीं, किन्तु वह बोलती कम थी। कभी उसके नेत्रोंसे आसुओंके बूंद झरते थे, और कभी वह संग मर्मरकी मूर्तिसी निश्चल हो जाती । नागदत्त समझ गया कि अपने बाल्यकै थि स्थानको ऐसी अवस्थाम