पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१६५

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बौलासे गंगा थे। अखे बंद तथा कोटरलौन थीं; हाँ पीली भौहोंकी कमान अभी भी तनी हुई थी । ललाटकी स्निग्धश्चेतिमा रूखी और निस्तेज हो गई थी। क्षत्रपने नजदीक मुँह ले जाकर कहा--- रोगिणीने ज़रा सी अखें खोली, फिर बैद कर लिया। वैद्यने कहाभूळ, आशिक मूछ ।" फिर उसने हाथोको निकाल कर नाड़ी देखी, मुश्किलसे उसका पता लग रहा था, शरीर करीब करीब ठंडा था। क्षत्रपने वैद्यके चेहरे को गंभीर होते देखा। ज़रा सा सोचकर वैद्यने कहा थोड़ी सी द्राक्षी सुरा, पुरानी जितनी मिल सके । क्षत्रपके पास उसकी कमी न थी, इस यात्रामें भी। एक काँचकी श्वेत सुराही रुधिर जैसी लाल द्राक्षी सुरासे भरी और एक मणि जटित सुवर्ण चषक आया। वैद्यने एक पोटली खोली और दाहिने हाथ की काली अँगुलीके बढ़े नखसे एक रत्ती कोई दवा निकाल रोगिणीका मुंह खोलने के लिए कहा । क्षत्रपको मुंह खोलने में दिक्कत नहीं हुई। उसने दवा मुंहमें डाल एक चॅट सुरा मुंह में डालदी, रोगिणीको घोंटते देख वैद्यको सन्तोष हो गया। उसने शत्रपसे कहा| अब मैं बाहर महाक्षत्रपके वैद्योंसे मिलना चाहता हूँ, थोड़ी देर में भहा क्षत्रपानी आँख खोलेगी, उस वक्त मेरे आनेकी जरूरत होगी । दूसरे कमरे में जाकर वैद्यने पार्शव वैद्योंसे मत्रणाकी । उन्होंने, सोग्द से चलने के समय जो साधारण ज्वर आया था, तबसे लेकर आज तक की अवस्थाको सारा वर्णन किया। इसी वक्त परिचारकाने अफर सवना दी, कि स्वामिनी महाक्षत्रपको बुलाती हैं। महाक्षत्रपके चेहरे पर नया प्रकाशसा दौड़ गया, वह वैद्यको लेकर मीतर गया । छत्रपानीकी आँखें पूरी तौरसे खुली हुई थी। उसके चेहरेमें कुछ जीवनका चिन्ह दिखलाई दे रहा था। क्षेत्रपानीने धीरेले किन्तु संयत स्वरमै कहा-- "नै जान रही हूँ, तुम बहुत खिन्न हो, मैंने यही कहने के लिये बुलाया,