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वोल्गासे गंगा

कितनी ही देर तक उपदेश सुन, प्रसेनजित् बाहर निकला, तो रानीने बिलख बिलखकर सारी बात बतलाई। वहाँसे प्रसेनजित् अपने भांजे मगध-राज अजातशत्रुसें मदद लेनेके लिये राजगृहकी ओर चला। बुढाईमें कई सप्ताह पैदल चलनेसे रास्ते हीमें उसका शरीर जवाब दे चुका था। शामको जब राजगह पहुँचा, तो नगरद्वार बन्द हो चुका था। द्वारके बाहर उसी रात एक कुटियामें प्रसेनजित् मर गया। सवेरे रानीका विलाप सुन अजातशत्रु और वज्रा दौड़ आये, किन्तु उसे मिट्टीको ठाट-बाटसे जलानेके सिवाय वह क्या कर सकते थे।

बंधुलके खूनका यह बदला था, दासता के दुष्कर्मका यह परिणाम था।*


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* आज से सौ पीढ़ी पहिलेकी यह एक ऐतिहाहिक कहानी है। उस वक्त तक सामाजिक विषमतायें बहुत बढ़ चुकी थीं। धनी व्यापारी वर्ग समाजमें एक महत्वपूर्ण स्थान ग्रहणकर चुका था। परलोकका रास्ता बतलाने वाले, नरकसे उतार करनेवाले कितने ही पथप्रदर्शक पैदा हो गये थे; किंतु गांव गांवमें दासताके नर्ककी धधकना देख कर भी सब की आँखें उधरसे मुंड़ी हुई थीं।