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वोल्गासे गंगा


निश्चित हुआ कि बधुल मल्ल लकड़ीके सात खुटोंको एक सासमें तलवारसे काट डाले। इसके लिये सातवा दिन निश्चितकर सभा उठ गई।

सातवें दिन कुसीनाराके मैदानमें स्त्री-पुरुषोंकी भारी भीड़ जमा हुई। मल्लिकाभी वहाँ मौजूद थी। ज़रा ज़र दूर पर कठोर काष्ठके साथ खूटे गड़े हुये थे। गणपतिके आज्ञा देने पर बधुलने तलवार संभाली। सारी जन-मंडली सास रोककर देखने लगी। बुधुल मल्लकी दृढ़ भुजाओंमें उस लम्बे सीधे खङ्गको देखकर लोग बंधुलकी सफलताके लिये निश्चिन्त थे। बंधुलकी बिजलीसी चमकती तलवारको लोगोंने उठते गिरते देखा—पहिला खूटा कटा, दूसरा, तीसरा, छठेके कटते वक्त बंधुलके कानों में झन्नकी आवाज़ आई, उसके ललाट पर बल आ गया, और उत्साह ठंडा हो गया। बंधुलकी तलवार सातवें खूंटेके अन्तिम छोरपर पहुँचनेसे जरा पहिले रुक गई। बंधुल जल्दीसे एक बार सभी खुटों के सिरों को देख गया। उसका सारा शरीर काप रहा था, मुंह गुस्से में लाल था, किन्तु वह बिल्कुल चुप रहा।

गणपतिने घोषित किया कि सातवे खुटेका सिरा अलग नहीं हो पाया। लोगोंकी सहानुभूति बंधुल मल्लकी ओर थी।

घर आ मल्लिकाने बंधुलके लाल और गम्भीर चेहरेको देखकर ‘अपनी उदासीको भूल उसे सान्त्वना देना चाहा। बंधुलने कहा—
"मल्लिका ! मेरे साथ भारी धोखा किया गया। मुझे इसकी आशा न थी ।”
"क्या हुआ प्रिय !"
"एक एक खूटेमें लोहेकी कीलें गाड़ी हुई थीं। पाँचवें खूटे तक मुझे कुछ पता न था, छठवेंके काटनेपर मुझे झन-सी आवाज़ साफ सुनाई दी। मैं धोखा-समझ गया। यदि इस आवालको न सुना होता, तो सातवें खूटेको भी साफ कट जाता, किन्तु फिर मेरा मन छुब्ध हो गया।"