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वोल्गासे गंगा


कितना मेल है। यह अति क्षुद्र प्राणी समझे जाते हैं, और शत-सहस्र मिलकर एक साथ रह, इतने बड़े बड़े प्रासादों को बनाते हैं। मुझे दुःख है, हमारे मल्ल इन दीमकों से कुछ शिक्षा नहीं लेते।”
“मानव भी मेल से रहने में किसी से कम नहीं हैं, बल्कि मानव, जो आज श्रेष्ठ प्राणीं बना है, वह भेल ही के कारण। तभी वह इतने बड़े बड़े नगरों, निगमों ( कस्बों ), गाँवो को बसाने में सफल हुआ है, तभी उसके जलपोत अपार सागर को पारकर दीप-दीपान्तरों की निधियों को जमा करते हैं, तभी उसके सामने हाथी, गैंडे, सिंह नतशिर होते हैं।”
“किन्तु उसकी ईर्ष्या ! यदि यह ईर्ष्या न होतीं, तो कितना अच्छा होता !”
“तुझे मल्ल की ईर्ष्या का ख्याल आता है।”
“हाँ, क्यो वह तुझसे ईर्ष्या करते हैं। मैंने तुझे कभी किसी की निन्दा-अपकार करते नही देखा-सुना, बल्कि तेरे मधुर व्यवहार से दासकर्मकर तक कितने प्रसन्न हैं, यह सभी जानते हैं। तो भी कितने ही सम्भ्रान्त मल्ल तुझसे इतनी डाह रखते हैं !”
“क्योंकि वह मुझे सर्वप्रिय होते देखते हैं, और गण ( प्रजातन्त्र )मे सर्वप्रिय के डाह करने वाले अधिक पाये जाते हैं, सर्वप्रियता ही से तो यहाँ पुरुष गण-प्रमुख होता है।”
“किन्तु, उन्हें तेरे गुणों को देखकर प्रसन्न होना चाहिये था। मल्लों में किसी को तक्षशिला में इतना सम्मान मिला हो, आज तक नहीं सुना गया। क्या उन्हें मालूम नहीं कि आज भी राजा प्रसेनजित् कोसल के लेख ( पत्र ) पर लेख तुझे बुलाने के लिये आ रहे हैं।”
“हम तक्षशिला में दस साल तक एक साथ पढ़ते रहे। उसे मेरे गुण ज्ञात हैं।”
"कुसीनारा के मल्ल को वह अज्ञात हैं, यह मैं नहीं मानती। महालिलिच्छवि जब यहां आकर तेरे पास ठहरा हुआ था, उस वक्त उसके मुँह से तेरे गुणों का बखान-बहुत से कुसीनारा वालों ने सुना था।"