पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१२८

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प्रवाहण १२७ ज्ञानियोंको शिष्य बना ब्रह्मज्ञान सिखलाता फिरता है, और मैं तेरै घरम ही तेरी बातको सरासर झूठ-फरेब मानती हूँ। क्योंकि तु असली रहस्य (उपनिषद् ) को जानती है। 'ब्राह्मण समझदार होते, तो क्या तेरे रहस्यको नहीं जान पाते हैं। वह भी तू देखती ही है। कोई-कोई ब्राह्मण रहस्यकी, परखकर सकते हैं; किन्तु वह मेरे इस रहस्य-१ उपनिषद्) हथियारको अपने लिए बहुत उपयोगी समझते हैं। उनकी पुरोहिती, शुरुआईपर लोगों को अविश्वास हो चला था। जिसका परिणाम होता उस दक्षिणसे वचित होना, जिससे उन्हें चढ़नेको बड़वा-रथ, खानेको उत्तम आहार, रहनेको सुन्दर प्रासाद और भोगनेको सुन्दर दासियाँ मिलती हैं।' 'यह तो व्यापार हुआ है। ‘व्यापार, और ऐसा व्यापार, जिसमें हानिका भय नहीं। इसलिए उद्दालक-जैसे समझदार ब्राह्मण मेरे पास हायमें समिधा लेकर शिष्य बनने आते हैं, और मैं ब्राह्मणोंके प्रति गौरव प्रदर्शित करते हुए उपनयन किए बिना विधिवत् गुरु बने विना-उन्हें ब्रह्मज्ञान प्रदान करता हूँ। 'यह बहुत निकृष्ट भावना है, प्रवाहण !' 'मानता हूँ। किन्तु हमारे उद्देश्यके लिए यह सबसे अधिक उपयोगी साधन है । वशिष्ठ और विश्वामित्रकी नावने हजार वर्ष भी काम नहीं दिया; किन्तु जिस नावको प्रवाहण तैयार कर रहा है, वह दो हजार वर्ष आगे तक राजाओं और सामन्तो—परधन भोगियाको पार उतारती रहेगी। यज्ञ-रूपी नावको, लोपा, मैने अदृढ़ समझा। इसीलिए इस दृढ़ नावको तैयार किया है, जिसे ब्राह्मण और क्षत्रिय मिलकर ठीकसे इस्तेमाल करते हुए ऐश्वर्य भोगते रहेंगे। किन्तु, लोपा, इस "आकाश” या ब्रह्मसे भी बढ़कर मेरा दूसरा आविष्कार है। 'कौन ? ‘मरकर फिर इसी दुनियामें लौटना–पुनर्जन्म' ।'