पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/११७

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वोलासै गगा ठानी थी; किन्तु इसके लिये देवताको दलदलमै पाद-निमम जने को पहले यह विश्वास दिलाना था कि सुदास्पर देवताओं की कृपा है।' और कृपा है, इसका सबूत इसके सिवाय कोई न था कि ऋषि-- ब्राह्मण-उसकी प्रशंसा करें । अन्त में ऋषियोंकी प्रशंसा पाने के लिए उसे हिरण्य-सुवर्ण, पशु-धान्य, दास-दासी दान देनेके सिवाय कोई रास्ता नहीं सूझा । पीवर गोवत्सकै भास और मधुर सोमरससे तोंद फुलाए इन ऋषियोंकी रायमें वह वस्तुतः अब सुदास् ( बहुत दान देनेवाला ) हुआ। इन चाटुकार ऋषियोंकी बनाई सुदास्की ‘दान स्तुतियों में कितनी ही अब भी ऋग्वेदमें मौजूद हैं; किन्तु यह किसको पता है कि सुदास् इन दान-स्तुतियोंको सुनकर उनकै बनानेवाले कवियोंको कितनी घृणाकी दृष्टिसे देखता था।। सुदास्की यशोगान सारे उत्तर-पंचाल ( रुहेलखंड में ही नहीं, दूर-दूर तक होने लगा था। अपने भौग-शून्य जीवन से वह जो कुछ हो सकता था, विश्व-जनका हित करता था । पिताके कितने ही साल बाद सुदास्की म मरी । वर्षों से जो घाव साधारण तौर से बहते रहने के कारण अभ्यस्त हो गया था, अब जान पड़ा, उसने भारी विस्फोटका रूप धारण कर लिया है। उसे मालूम होता था, अपाला हर क्षण उसके सामने खड़ी है और अश्पूर्ण नेत्रों, कम्पित अधरोसे कह रही है मैं तेरे लिए मद्रपुरमें प्रतीक्षा करूंगी । उस व्यथाकी आर्गको सुदा असुओंसे बुझा नहीं सकता था। हिमवान्मे शिकार करनेका बहानाकर सुदास् एक दिन पंचालपुर (अहिच्छत्र)से निकल पड़ा। | मद्रपुर (स्यालकोट)मे वह घर मौजूद था, जहाँ उसे श्रपालाका प्रेम प्राप्त हुआ था; किंतु न अब वहाँ जेता था, न उसकी प्रिया अपाला। दोनो मर चुके थे, अपाला एक ही साल पहले । उस धरमें अपालाका लुस-पुनः प्राप्त भाई और उसका परिवार रहता था । सुदा