पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/११४

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सुदास हैं, वैसा ही व्यवहार भी करते हैं, इसलिए उनको डर नहीं । राजा चोर है, जन-अधिकारके अपहारक हैं, इसलिए उनको हर वक्त हर बना रहता है । राजाओंका रनिवास, राजाओंका सौना-रूप-रक्ष, राजाओंकी दास-दासिया---राजाका सारा भोग–अपना कमाया नहीं होता, यह सब अपहरणसे आया है। ‘पुत्रः ! इसके लिए तू मुझे दोषी ठहराता है ? 'बिल्कुल नहीं, आर्य । तेरी जगहपर आनेपर मुझे भी इच्छा या अनिच्छासे वही करना होगा । मैं अपने पिता दिवोदासको इसके लिए दोष नहीं ठहराता ।। 'तू राज्यको जनके पास लौटानेके लिए कहता है, क्या यह सम्भव है १ तुझे समझना चाहिए पुत्रः ! जनके भोगका अपहारक सिर्फ पंचालराज दिवोदास ही नहीं है। वह अनेक अपहारक-चौर सामन्तोंमें से एक है। वह बड़ा हो सकता हैं ; किन्तु उनके सम्मिलित बल के सामने पंगु है। अनेक प्रदेश-पति, उग्र-राजपुत्र ( रानवशिक ), सेनापतिके अतिरिक्त सबसे भारी सामन्त तो पुरोहित है ।। 'हाँ, मैं जानता हूँ पुरोहितकी शक्तिको । राजाके छोटे पुत्र राजपद तो पा नहीं सकते, इसीलिए वह पुरोहित (ब्राह्मण ) बन जाते हैं। मै समझता हूँ, मेरा छोटा भाई प्रतर्दन भी वैसा ही करेगा। अभी राजा और पुरोहितमें सिंहासन-वेदी और यज्ञ-वेदीका ही अन्तर है ; किन्तु क्या जाने, आगे चलकर क्षत्री, ब्राह्मण दो अलग वल दो अलग श्रेणियाँ बन जायें। मन्द्रगन्धारमै खड्स और जुवा दोनोंको एक ही हाथ सँभाल सकता है ; किन्तु पंचालपुरमे सू वा विश्वामित्रके हाथमें होगा और खड्स बध्युश्व-पुत्र दिवोदासके हाथमे । जनका बँटवारा तो अभी यहाँ तीन भागों में हो चुका है--सामन्तके नाते, जन-भोग-अपहारक होने के नाते, आवाह-विवाह-सम्बन्धके नाते, माता-पिताके नाते भी चाहे राजा और पुरोहित एक हों; किन्तु दोनोंके नाम–क्षत्रिय, ब्राह्मण अभी ही अलग-अलग गिने जाने लगे हैं, और दोनोंके स्वार्थों में टक्कर