पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/११३

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११३ बोलासे गंगा जनके साधारण पुरुष थे। उस समय पंचालका कोई राजा न था । पंचाल-जन ही सारा शासन चलाता था, जैसे आज भी मल्लमें, मद्रमें, गन्धारमें वहाँकै जन चलाते हैं। फिर हमारे दादा वध्य॒श्वके किसी पूर्वजको लोभ-भोगको लोभ, दूसरोंके परिश्रमकी कमाईकै अपहरणका लोभ-हुआ। वह जन-पति या सेनापतिके पदपर रहा होगा और जनके लिए किसी युद्धको जीतकर जनके प्रेम, विश्वास और सम्पत्तिको प्राप्त किया होगा, जिसके बलपर उसने जनसे विश्वासघात किया। जनका राज्य हटाकर उसने असुरोंकी भाँति राजाका राज्य स्थापित किया, असुरोंकी भाँति वशिष्ट, विश्वामित्रके किसी विस्मृत पूर्वजको पुरोहित-पदवी रिश्वतमें दी, जिसने जनकी आँखोंमें धूल झोंककर कहना शुरू किया-–इन्द्र, अमि, सौम, वरुण, विश्वदेवने इस राजाको तुम्हारे ऊपर शासन करनेके लिए भेजा है, इसकी आज्ञा मानो, इसे चलि-शुल्क-अर दो। यह सरासर बेईमानी थी, चोरी थी पिता ! जिससे अधिकार मिला, उसके नाम तकको भूल जाना, उसके लिए कृतज्ञताके एक शब्दको भी बीमपर न लाना है। नहीं पुत्र | विश्व ( = सारे) जनको हम अपना राजकृत् (==राजा बनानेवाला ) स्वीकार करते हैं। अभिषेककी प्रतिज्ञाके वक्त चही इमें राम-चिह पलाश-देह देते हैं। अभिषेक-प्रतिज्ञा अब समया ( =तमाशा ) जैसी है। किन्तु क्या सचमुच जैन राजाकै स्वामी हैं ? नहीं, यह तो स्पष्ट हो जाता हैं, जव कि हम देखते हैं-राजा अपने जनके बीच बराबरीमें बैठ नहीं सकता, उनसे सहभोज, सहयोग नहीं रखता। क्या मद्र या गन्धारका जन-पृति ऐसा कर सकता है । 'यहाँ यदि हम वैसा करें, तो किसी-दिन भी शत्रु मार देगा, या विष ३ देगा।' । 'यह भय भी चोर-अपहारको ही हो सकता है। जन-पति चोर नहीं होते, अपहारक नहीं होते । वह वस्तुतः अपनेको जन-सुत्र समझते