पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१११

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बोल्गासे गंगा चलते वक्त अपालाने फिर आलिंगनपूर्वक कहा---‘सुदासू । मैं तेरे लिए मद्रपुरमें प्रतीक्षा करूंगी ।' अपालाके ये शब्द सारे जीवनके लिए सुदास्के कलेजेमें गड़ गए। सुदास्का अपनी माँसे भारी स्नेह था। सुदाका पिता दिवोदास्। प्रतापी राजा था, जिसकी प्रशंसा वशिष्ठ, विश्वामित्र और भरद्वाज जैसे महान् ऋषियोंने मन्त्रपर मन्त्र बनाए; किन्तु ऋग्वेदमें जमाकर देने मात्रसे उनके भीतर भरी चापलूसी छिपाई नहीं जा सकती । सुदासूका लेह केवल अपनी मातासे था। वह जानता था कि दिवोदास्की उस-जैसी कितनी ही पत्नियाँ, कितनी ही दासियाँ हैं, वह उसके ज्येष्ठ पुत्र-पंचाल-सिंहासनके उत्तराधिकारी की माँ है, इसके लिए वह थोड़ा-सा खयाल भले ही करे; किन्तु दिवोदास् कितनी ही तरुण सुन्दरियोंसे भरे रनवासमें उस बुढियाके दन्तहीन मुखर्के साथ प्रेम क्यों करने लगी १ माँका एक पुत्र होनेपर भी वह पिताका एकमात्र पुत्र न था । उसके न रहने पर प्रतर्दन दिवोदासका उत्तराधिकारी होता है। वर्षों बीत जानैपर माँ पुत्रसे निराश हो गई थी, और रोते-रोते उसकी आँखोंकी ज्योति मन्द पड़ गई थी। सुदासू एक दिन चुपचाप बिना किसीको खबर दिए, पितासे बिना मिले, के सामने जाकर खड़ा हो गया। निष्प्रभ आँखोंसे उसे अपनी और विलोकते देख सुदास्ने कहा--'म ! मैं हूँ तेरा सुदास् ।' उसकी आँखे प्रभायुक्त हो गईं, फिर भी मंचसे बिना हिले ही उसने कहा-'यदि तू सचमुच मेरा सुदास् है, तो विलीन होने के लिए वहाँ क्यों खड़ा है ? क्यों नहीं मेरे कण्ठसे लगता है क्यों नहीं अपने सिरको मेरी गोदमें रखता है। सुदासूने मौकी गोदमें अपने सिर को रख दिया । मनैि हाथ लगाकर

वेद ६२६॥, ५