पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१०५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

वोगासे गंगा महीनोंमें जैता और उसकी लड़की अपने तरुण कमकरके सरल, हँसमुख स्वभावसे बहुत परिचित हो चुके थे । एक दिन सायनुराके बाद बेताने सुदास्से पूरबवालोंकी बात छेड़ दी। अपाला भी पास बैठी सुन रही थी । जेताने कहा-'सुदाः ! पूरब मे मै बहुत दूर तक तो नहीं गया हूँ। किन्तु पचालपुर ( अहिच्छत्र ) को मैंने देखा है। मैं अपने घोड़े को लेकर जाड़ों में गया था । पंचाल ( रुहेलखेड ) कैसा लगा आर्यवृद्ध है। जनपद में कोई दोष नहीं । वह मद जैसा ही स्वस्थ-समृद्ध है, बल्कि उसके खेत थहाँसे भी अधिक उपजाऊ मालूम हुए; किन्तु...' *किन्तु क्या है। क्षमा करना सुदाः । वहाँ मानव नहीं बसते ।' मानब नहीं बसते है तो क्या देव या दानव बसते हैं । मैं इतना ही कहूंगा कि वह मानव नहीं बसते ।। मैं नाराज़ नहीं होगा आर्यवृद्ध ! तुझे क्यों ऐसा खयाल हुआ है। सुदाः ! तूने देखा मेरे खेत में काम करनेवाले दो सौ नरनारियोको १ 'क्या मैरे खेतमें काम करने, मेरे हाथसे वेतन पानेके कारण उन्हें जरा भी मेरे सामने दैत्य प्रकट करते देखा है। नहीं, बल्कि मालूम होता था, सभी तेरे परिवारकै आदमी हैं । "हाँ, इनको मानव कहते हैं। ये मेरे परिवारकै हैं । सभी माद्र और माद्रियाँ हैं। पूरबमें ऐसी बातको दैखनेको भी तरसता है । वहाँ दास या स्वामी मिलते हैं, मानव नहीं मिलते, बन्धु नहीं मिलते। । सत्य कहा, आर्यवृद्ध | मानवको मूल्य मैंने शतद्र ( सतलज ) पारकर-खासकर इस मद्रभूमिमे आकर देखा। मानवमें रहना आनन्द, अभिमान और भाग्यकी बात है।