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वैशेषिक दर्शन।

वर्तमान या सत् है तथापि उनमें 'सत्ता' जाति हैं ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि द्रव्य, गुण और कर्म इन्हीं तीन पदार्थों में सामान्य या जाति रह सकती है।

जितनी वस्तुओं के कारण हैं वे सब कार्य हैं और अनित्य हैं, यही इन का साधर्म्य है।

परमाणु के परिमाण को छोड़ कर और जितनी चीजें हैं इन सभों में यही साधर्म्य है कि ये कारण हो सकती हैं।

सामान्य, विशेष और समवाय, इन तीनों का साधर्म्य यह है कि इनका विकार नहीं होता। अपने अपने रूप से ये सदा बने रहते हैं। बुद्धि ही से केवल इनका ज्ञान हो सकता है, इन्द्रियादि से नहीं, ये कार्य नहीं होते, कारण नहीं होते। इन का सामान्य या विशेष नहीं होता, ये नित्य हैं।

द्रव्य गुण का साधर्म्य है कि दोनों अपनी सजातीय वस्तु उत्पन्न करते हैं।

पृथिवी, जल, तेज (अग्नि), वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन ये नव 'द्रव्य' कहलाते हैं। गुणों का आधार जो हो सकै, जिस में गुण का आधार होने की सामर्थ्य हो, वही 'द्रव्य' कहलाता है। और पृथिव्यादि जो नौ चीजें हैं उन्हीं में गुण रह सकते हैं। इन से अलग कोई गुण कहीं भी नहीं रह सकता है। इस से इन नवों चीजों में यही साधर्म्य है कि ये गुणों के आधार हो सकती हैं—अर्थात् द्रव्य हैं। इन नवों के और साधर्म्य ये हैं कि इन का विकार होता है, इन के गुण हैं, कार्य या कारण से इन का नाश नहीं होता और इन में अन्त्य विशेष होते हैं।

अवयव वाले द्रव्यों को छोड़ कर और जितने द्रव्य हैं उन का यह साधर्म्य हैं कि ये किसी आधार पर नहीं रहते और नित्य हैं।

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आत्मा और मन का यह साधर्म्य है कि ये अनेक हैं और इन की पर अपर दोनों तरह की जाति होती है।

पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और मन का यह साधर्म्य है कि इन में क्रिया होती है—ये मूर्त हैं अर्थात् स्थूल मूर्तिवाले हैं। इनमें परत्व अपरत्व और वेग है।