पृष्ठ:वैशेषिक दर्शन.djvu/५१

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४९
वैशेषिक दर्शन।

चीजों को अलग करते हैं परन्तु इन कई चीजों में समान पाये जाते हैं। इससे ये गुण सामान्य के भी कारण हो जाते हैं। और 'सामान्य-विशेष' ऐसी मिली हुई संज्ञा इन की होती है। जैसे लाल रंग लाल वस्तु को और रंग की वस्तुओं से अलग करता है, पर कुल लाल वस्तुओं में समान है। इसी से असल विशेष वेही हैं जिनके द्वारा केवल वस्तु औरों से पृथक् समझी जाय। ऐसे गुण केवल वेही हो सकते हैं जो कि परमाणुओं ही में हैं। एक द्रव्य के परमाणु में जो गुण हैं वेही 'विशेष' कहलाते हैं। या नित्य द्रव्य जो हैं आकाश, काल, दिक्, आत्मा, इन्हीं के गुण 'विशेष' हो सकते हैं। मन अणु हैं इससे मन का गुण भी 'विशेष' हो सकता है। इससे जितने परमाणु हैं उन सभों में पृथक् पृथक् कोई कोई ऐसे गुण हैं जिनके द्वारा एक परमाणु दूसरे से अलग समझा जाता है। आकाशादि नित्य द्रव्य में भी कई गुण होंगे जिन से एक नित्य द्रव्य दूसरे नित्य द्रव्य से अलग समझा जाता है। इन्हीं गुणों को 'विशेष' कहते हैं। इन विशेषों का प्रत्यक्ष ज्ञान केवल योगियों ही को हो सकता है। हम लोग केवल उनका अनुमान कर सकते हैं।

विशेषों के मानने ही से प्रायः इस दर्शन के मानने वाले 'वैशेषिक' कहलाते हैं। परंतु कणाद सूत्र में विशेष का लक्षण नहीं पाया जाता है। केवल सूत्र १२ में विशेष की चर्चा पाई जाती है जहां पर सामान्य गुणों के वर्णन के अवसर में इनको अन्य विशेष से अलग कहा है। इसी मूल पर प्रशस्तपाद ने विशेषों का स्वीकार कर पहिले पहिल इसका लक्षणादि किया।

समवाय प्रकरण।

नित्य सम्बन्ध को समवाय कहते हैं। जैसे अवयव और अवयवों का सम्बन्ध। जब दो वस्तु कभी एक दूसरे से अलग नहीं पाई जाती तब उन दोनों के इस सम्बन्ध को 'अयुतसिद्धि' या 'समवाय' कहते हैं। संयोगादि सम्बन्ध का नाश होता है। समवाय का नाश नहीं होता। इसी से संयोगादि से इसको पृथक् सम्बन्ध माना है।

समवाय सम्बन्ध द्रव्यों में किसी सम्बन्ध से नहीं रहता। यदि ऐसा होता तो अनन्त सम्बन्धों की कल्पना आवश्यक होती