का ज्ञान होता है सो तभी होगा जब उसको कोई गवय देखने वाला विश्वासपात्र आदमी कहेगा, की गवय गाय के सदृश होता है। इस वाक्य से उत्पन्न ज्ञान 'शाब्द' है। और शाब्द ज्ञान अनुमान है। क्योंकि जब कभी शब्द सुनकर निश्चितज्ञान मेरे मन में होगा तब अवश्य मेरे मनमें यह युक्ति आवेगी 'यह जो बात इस आदमी ने कहीं सो अवश्य सत्य है, क्योंकि यह सत्यवादी है'। यह स्पष्ट अनुमिति ज्ञान का स्वरूप है।
अर्यापत्ति और अभाव को भी नैयायिकों की तरह वैशेषिक अनुमान में अन्तर्गत मानते हैं।
स्मृति को नैयायिकों ने अप्रमाण माना है, परंतु वैशेषिकों ने इसको विद्या ही एक का प्रकार माना है। (प्रशस्तपाद प॰ १८६, २५६)।
शास्त्र प्रवर्तक ऋषियों को भूत भविष्यत् अतिन्द्रिय पदार्थों का भी ज्ञान उनके विलक्षणधर्म के द्वारा होता है, इस ज्ञान को 'आर्ष', 'प्रातिम' ज्ञान कहते हैं। (प्रशस्तपाद पृ॰ २५८)
तीसरा पदार्थ। कर्म
द्रव्य और गुण का विचार होगया। तीसरा पदार्थ 'कर्म' पांच प्रकार का है। एक कर्म एक ही द्रव्य में रहता है, सो भी भूत ही द्रव्य में। सब कर्म क्षणिक हैं। कर्म में गुण नहीं होता। गुरुत्व द्रवत्व प्रयत्न और संयोग से कर्म उत्पन्न होता है। अपने से उत्पन्न जो संयोग उसी से कर्म का नाश होता है। संयोग और विभाग को उत्पन्न करता है। कर्म असमवायि कारण होता है। अपने आश्रय में और दूसरे आश्रय में समवेत कार्य को उत्पन्न करता है।
कर्म के पांच भेद हैं—[१] उत्क्षेपण, ऊपर जाना। [२] अपक्षेपण नीचे जाना। [३] आकुञ्चन, सकुच जाना। [४] प्रसारण, फैलना। [५] गमन, चलना।
ये पांचों तरह के कर्म तीन तरह के होते हैं—[१] सत्प्रत्यय ज्ञानपूर्वक। जैसे जब हम जानकर अपना हाथ उठाते हैं तब हाथ का