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दुःख, इच्छा।

इच्छा करते हैं। सुख की इच्छा ऐसी नहीं है। सुख की इच्छा केवल सुख ही के लिये होती है।

माला चन्दन इत्यादि अभीष्ट वस्तु के पाने पर उन वस्तुओं का इन्द्रियों के साथ सन्निकर्ष होता है, फिर पूर्व जन्म कृत धर्म के ज़ोर से आत्मा मन का संयोग होता है, इन कारणों से एक चित्त में ऐसा भाव उत्पन्न होता है जिससे मनुष्य के चेहरे पर एक तरह का उजियाला छा जाता है। इसी भाव को 'सुख' कहते हैँ। (प्रशस्तपाद. पृ॰ २५९)

वर्तमान जितनी चीज़ें हैँ उनकी प्राप्ति से इस प्रकार सुख इन्द्रिय सन्निकर्ष द्वारा उत्पन्न होता है। भूत वस्तुओं से सुख उनके स्मरण से ही होता है। और भविष्यत् वस्तुओं से सुख उनके प्रसंग संकल्प–पाने की इच्छा–करने से होता है। ज्ञानियों को जो केवल ध्यानादि से अपूर्व सुख मिलता है उसका कारण उनकी विद्या, ज्ञान, श्रम, सन्तोष और विशेष प्रकार का धर्म है।

दुःख (१३)

किसी तरह का अभिघात हानि जिससे सूचित हो उसी को दुःख कहते हैं। जिसका द्वेष स्वतंत्र उसी के द्वारा हो वही दुःख है। और चीज़ों पर द्वेष केवल उनके दुःख उत्पन्न करने पर निर्भर है। जब विष इत्यादि अनभिप्रेत वस्तु सामने आती है तब उस वस्तु का इन्द्रियों के साथ संयोग होता है, फिर पूर्व जन्म कृत अधर्म के द्वारा आत्मा मन का संयोग द्वारा एक ऐसा भाव चित्त में उत्पन्न होता है जिससे आदमी के चेहरे पर दीनता और मलिनता छा जाती है—इसी भाव को 'दुःख' कहते हैं। वर्तमान काल की वस्तु से दुःख प्रत्यक्ष होता है, भूत वस्तुओं से स्मृति द्वारा और भविष्यद् वस्तुओं से संकल्प द्वारा।

इच्छा (१४)

जो वस्तु अपने पास नहीं है उसके मिलने के लिये जो प्रार्थना अपने लिये या दूसरे के लिये चित्त में उठती है—उसी को 'इच्छा' कहते हैं। जब किसी वस्तु के द्वारा सुख मिल चुका है तब जब कभी वह वस्तु सामने आती है या उसका स्मरण होता है तब उस