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वैशेषिक दर्शन।

अलग नहीँ रह सकते फिर इनके सम्बन्ध में संयोग का लक्षण नहीँ पाया जा सकता।

संयोग तीन प्रकार का है और तीन प्रकार से उत्पन्न होता है। (१) अन्यतरकर्मज—अर्थात् दो चीजों में से किसी एक की क्रिया से उत्पन्न—जैसे उड़ती हुई चिड़िया जब पेड़ पर आकर बैठ जाती हैं तब इन दोनों का संयोग चिड़िया की क्रिया से उत्पन्न हुआ। (२) उभयकर्मज—दोनों चीजों की क्रिया से उत्पन्न—जैसे दो भेड़ें दो तरफ़ से दौड़ कर आपस में टक्कर लड़ते हैं। इन दोनों का संयोग दोनों भेड़ों की क्रिया से उत्पन्न हुआ। (३) संयोगज—संयोग से उत्पन्न—जैसे कपड़ा जब बुना जाता है तब एक सूत बुनने वाले यंत्र में लगाया गया तब उस तन्तु से उस यंत्र का संयोग हुआ फिर जब दो ऐसे ऐसे सूत मिल कर 'दोसूती' पैदा हुई तब तक वे उस यंत्र में लगे ही रहे, तब उस 'दोसूती' का जो संयोग उस यंत्र से है सो पहिले वाले सूत का जो उस यंत्र के साथ संयोग था इसी संयोग से उत्पन्न हुआ।

संयोग का विनाश कभी तो संयुक्त वस्तुओं के अलग हो जानेसे होता है, जैसे जब लड़ते हुये भेड़े टक्कर लड़कर पीछे हट जाते हैं। और कभी संयुक्त वस्तुओं के नाश ही से, जैसे जब कपड़ा नष्ट हो, जाता है तो उसके अन्तर्गत सूत्रों का संयोग भी नष्ट हो जाता है।

संयोग अव्याप्य वृत्ति है। जिस वस्तु में रहता है उसके एकही अंश में रहता है, जैसे दो भेड़ों का संयोग केवल उनके सिरहीं पर रहता है, समस्त शरीर में नहीं।

विभाग (९)

जब दो वस्तु मिली हुई हैँ यदि वे अलग हो जायँ तो इसी अलग होने को विभाग कहते हैँ। केवल संयोग के अभाव ही को 'विभाग' नहीं कहते। यदि ऐसा कहते तो संसार में जितनी चीज़ें अलग अलग हैँ उन सभों में 'विभक्त' का व्यवहार होता, पर ऐसा नहीँ है। दो मिली हुई वस्तुओं ही के अलग होने को 'विभाग' कहा है। यह भी तीन प्रकार का है—(१)अन्यतर—कर्मज—पेड़ पर से जब चिड़िया उड़ जाती है तब पेड़ से चिड़िया का विभाग चिड़िया की क्रिया से होता है। (२) उभयकर्मज—