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गुण

तथापि 'गुण चौबीस हैं' ऐसा कहा है—इसका तात्पर्य यह नहीं है कि गुण में संख्यारूप एक गुण हैं। तात्पर्य इतनाही है कि जितने गुण हैं उनमें असाधारण धर्म वाले, अर्थात् जो किसी और गुण में अन्तर्गत नहीं किए जा सकते, २४, हैं। इस व्याख्या से असल शंका का समाधान नहीं होता। जब गुण २४ हैं तो फिर संख्या गुण में कैसे नहीं हुई? जब गुणों का गिनाना आरम्भ हुआ तभी उनमें संख्या का होना आवश्यक हुआ।

जैसे द्रव्यों में साधर्म्य-समान धर्मवत्त्व-का निरूपण हुआ है वैसे ही वैशेषिकों ने गुणों में भी किया है। (१) जितने गुण हैं सभी में 'गुणत्व' जाति है। सब द्रव्यों में आश्रित रहते हैं—सभी निर्गुण हैं—सभी में कोई क्रिया नहीं है—अर्थात् किसी भी गुण में चलन रूप क्रिया नहीं पाई जाती। (२) रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, वेग—ये 'मूर्त' गुण कहलाते है। अर्थात् ये उन्हीं द्रव्यों में पाये जाते हैं जिनकी मूर्ति है—जिनका स्थूल रूप होता है—अर्थात् पृथ्वी जल वायु अग्नि और मनस इन्हीं में ये गुण पाये जाते हैं। (३) बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म अधर्म, संस्कार और शब्द—ये 'अमूर्त' गुण हैं। अर्थात् ये उन्हीं द्रव्यों में पाये जाते हैं जिनका स्थूल रूप नहीं है। ये केवल आत्मा और आकाश में पाये जाते हैं। (४) संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग ये गुण मूर्त अमूर्त सभी द्रव्यों में पाये जाते हैं। (५) संयोग, विभाग, द्वित्व, द्विपृथक्त्व, त्रिपृथक्त्व इत्यादि अनेक द्रव्यों में रहते हैं। अर्थात् ये कभी एकही द्रव्य में नहीं रह सकते। संयोग जब होगा तब दो या अधिक चीजों में। (६) इनके अतिरिक्त जितने गुण हैं, सब एक एक द्रव्य में पाये जाते हैं। (७) रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, स्नेह, द्रवत्व (स्वाभाविक)—बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, शब्द ये 'वैशेषिक गुण' या 'विरोष गुण' कहलाते हैं। अर्थात् ये ऐसे गुण है जिनके द्वारा एक वस्तु दूसरी वस्तु से अलग समझी जाती है। इन्हीं गुणों के द्वारा द्रव्य एक दूसरे से अलग समझी जाते हैं। जैसे जब दो वस्तुओं में दो तरह का रूप, या रस या गन्ध इत्यादि पाया जाता है तभी एक का दूसरे से भेद समझा जाता है। इन्हीं गुणों के द्वारा वस्तुओ का विशेषण', 'व्यवच्छेद'