के धर्म अधर्म द्वारा ईश्वर शरीर ग्रहण करते हैँ—येही शरीर नाना प्रकार के अवतारों में कहे जाते हैँ। किसी के मत से परमाणु ही ईश्वर के शरीर हैँ। कुछ लोग आकाश को ईश्वर का शरीर कहते हैँ।
मन
नवम द्रव्य मन हैं। हम बहुधा ऐसा देखते हैं कि इन्द्रियों के व्यापार रहते हुए भी उस इन्द्रिय द्वारा ज्ञान नहीं होता है। जैसे मेरी आँखें खुली हुई हैं, घोड़ा भी मेरे सामने खड़ा है। पर मुझे घोड़े का ज्ञान नहीं होता—मैं घोड़े को नहीं देखता। इससे यह सूचित होता है कि वाह्य इन्द्रियों के अतिरिक्त कोई और भी पदार्थ है जिसके व्यापार बिना ज्ञान नहीं हो सकता। फिर जिस वस्तु को मैंने आज देखा उसका स्मरण मुझे कुछ दिन बाद होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस स्मरण का भी करण कोई दूसराही है। यह करण इन्द्रिय, वाह्य इन्द्रियों में से कोई नहीं हो सकता। इससे एक आभ्यन्तर करण—अन्तःकरण, मानना आवश्यक है। इसी अन्तःकरण का नाम 'मन' है। मन 'इन्द्रिय' है ऐसा सूत्रों में नहीं कहा है। पर मन को प्रशस्तपाद भाष्य में 'करण' कहा है।
मन के गुण हैं—संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, संस्कार। भिन्न भिन्न शरीर का व्यापार भिन्न भिन्न होता है इससे प्रति शरीर में एक एक भिन्न मन है। मन को वैशेषिकों ने अणु अति सूक्ष्म माना है। मनका संयोग सभी ज्ञान में आवश्यक होता है। यदि मन अणु न होता तो एक काल में अनेक ज्ञान एक आदमी को हो सकते। क्योंकि एकही काल में दो चार इन्द्रियों का संयोग मन से हो सकता। और इन संयोगों से इन सब इन्द्रियों द्वारा ज्ञान एकही क्षण में हो सकता। पर ऐसा होता नहीं है। एक क्षण में एकही ज्ञान होता है। इससे यह सूचित होता है कि एक क्षण में एकही इन्द्रिय का संयोग मन के साथ हो सकता है और यह तभी सम्भव है जब कि मन अणु है। इसी कारण से एक शरीर में एकही मन मानते हैं (सूत्र ३-२-३)।
मन नित्य है (सूत्र ३-२-२), मूर्त है, क्योंकि बिना मूर्ति के क्रिया नहीं हो सकती।