भेद नहीं किया है। भेद किया भी क्योँ जाय? ज्ञानाधिकरण तो जैसे एक आत्मा से सब सुख दुःखादि जितने आत्मा के गुण हैं वे सब जैसे एक में वैसे सब में। और फिर वैशेषिक शास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में ईश्वर या परमात्मा की चर्चा नहीं पाई जाती। पर नवीन ग्रन्थों में आत्मा के दो विभाग पाये जाते हैं। काणादरहस्य में शंकर मिश्र लिखते हैँ—
'आत्मा' के दो प्रकार हैँ। एक तो 'क्षेत्रज्ञ' अर्थात् शरीरमात्र में उत्पन्न ज्ञान का ज्ञाता, और दूसरा 'सर्वज्ञ' सब जाननेवाला। [यही मुख्य भेद परमात्मा जीवात्मा में है। परमात्मा सर्वज्ञ है जीवात्मा अल्पज्ञ]'।
आत्मा के गुण—बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, प्रशस्तपाद भाष्य में वर्णित हैँ। जिन ग्रन्थकारों ने परमात्मा जीवात्मा का विभाग किया है उनके मत से ये सब गुण जीवात्मा ही के हैँ—इन में से दुःख धर्म अधर्म ये तीन परमात्मा में नहीं हो सकते। परमात्मा में सुख है या नहीं इसमें मत भेद पाया जाता है।
परमात्मा, ईश्वर, संसार के कर्ता हैँ इसका साधक आगमवेद, और अनुमान है। पृथिव्यादि चार महाभूत कार्य अवश्य हैँ, और जो कार्य है, जिसकी उत्पत्ति होती है, उसकी उत्पत्ति के पहिले उस का ज्ञान किसी को अवश्य होगा, घट का ज्ञान कुम्हार को होता है तब घट की उत्पत्ति होती है। इसी तरह पृथिव्यादि सकल पदार्थ का ज्ञान किसी आत्मा को अवश्य होगा। जिस आत्मा में यह ज्ञान होगा वही 'ईश्वर' परमात्मा है, इत्यादि न्यायकंदली में वर्णित है। (पृ॰ ५४)
महाभूतसृष्टि से पहिलें यदि ईश्वर थे तो उनका शरीर क्या था, किस वस्तु का था—इस विषय में मत भेद है। अधिक ग्रन्थकारों का मत है कि शरीर की उत्पत्ति में आत्मा ही का धर्म अधर्म कारण होता है। ईश्वर को धर्म अधर्म नहीं। अतएव इनका शरीर भी नहीं हो सकता। कर्ता होने में शरीर का होना आवश्यक नहीं है (न्यायकंदली पृ॰ ५६)। कई ग्रन्थकारों का मत है कि संसार के जीवों