इच्छा, द्वेष, प्रयत्न का आधार कोई अवश्य होगा। यही आत्मा है। इसी से सूत्र ३-२-४ में सुख दुःख इत्यादि को आत्मा का 'लिंग' अर्थात् चिह्न कहा है। इसका तात्पर्य वर्णन करते हुए प्रशस्तपाद ने कई अनुमान दिखलाये हैं।
(१) हित पदार्थ के पाने का और अहित पदार्थ के छोड़ने का व्यापार जो मनुष्य में शरीर का होता है उससे शरीर में कोई चेतन पदार्थ है यह सूचित होता है। जैसे अच्छे मार्ग पर जाना और बुरे मार्ग को छोड़ना—इस रथ के व्यापार से रथ के भीतर सारथीरुप चेतन पदार्थ है—यह सूचित होता है।
(२) श्वास प्रश्वास से जो शरीर फूलता है और संकुचित होता है—इससे यह सूचित होता है कि यह किसी चैतन्य वाले पदार्थ द्वारा होता है—जैसे भाथी का फूलना और संकुचित होना भाथी फूंकने वाले के व्यापार से होता है।
(३) आँखों की पलकें गिरतीं हैं उठती हैं—इससे सूचित होता है कि जिस तरह कूएं में मोट का गिरना और उठना पानी खींचने वाले के व्यापार से होता है उसी तरह यहाँ भी कोई चेतन पदार्थ अवश्य है।
(४) शरीर में घाव लगता है और फिर भर जाता है। यह शरीर में स्थित आत्माही के द्वारा हो सकता है, जैसे घर में रहने वाला घर की मरम्मत करता है।
(५) जिस वस्तु के देखने की इच्छा होती है उसी वस्तु की ओर मन जाता है—यह व्यापार चेतन आत्माही का हो सकता है। यह व्यापार वैसाही है जैसे घर में बैठे हुए बालक का भिन्न भिन्न खिड़कियों की ओर ढेला फेंकना।
इन सब युक्तियों से मालूम होता है की वैशेषिकों के मत में प्रति शरीर भिन्न आत्मा है। आत्मा अनेक है यह सूत्र (३-२-१९-२१) में बतलाया है। भिन्न भिन्न शरीर की प्रवृत्ति सुख दुःख इत्यादि भिन्न होती है—इससे आत्मा एक नहीं हो सकती (सूत्र ३-२-२०)। और शास्त्रों में भी आत्मा को अनेक कहा है (३-२-२१)। प्रशस्तपाद भाष्य में जीवात्मा परमात्मा का