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काल

देख पड़ा', 'वह देर से देख पड़ा'। इन ज्ञानों का जो असाधारण कारण है उसी को वैशेषिकों ने "काल" माना है (सूत्र २-२-६)। द्रव्यों के जितने उत्पत्ति और नाश होते हैं किसी न किसी काल में होते हैं। इससे उन उत्पत्तिनाशों का भी कारण काल को माना है (सूत्र २-२-९)। क्षण, लव, निमेष, काष्ठा, कला, मुहूर्त्त, याम, अहोरात्र, अर्धमास, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, कल्प, मन्वन्तर, प्रलय, महाप्रलय इत्यादि शब्दों का जो प्रयोग होता है उसका भी असाधारण कारण काल ही है। संख्या परिमाण पृथक्त्व संयोग विभाग काल के गुण हैं। आकाश की तरह काल भी विभु अर्थात् सर्वव्यापी है। जहां जो कुछ है वह अवश्य किसी काल में है। इस से इसका भी परिमाण महत् परिमाण माना गया है। काल अमूर्त है। अतएव इसका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, केवल अनुमान ही होता है। यद्यपि असल में यह एक है तथापि उपाधियों के द्वारा क्षण इत्यादि अनेक नामोंसे प्रसिद्ध होता है। जैसे किसी काल में किसी वस्तु के उत्पन्न होने की सामग्री जुट गई है इसके बाद उस वस्तु के उत्पन्न होने तक जो सूक्ष्म काल है उसको क्षण कहते है। अर्थात् जैसे दिन में हमने बाग़ की तरफ आँख उठाई और फूलों को देखा। नज़र के फूलों पर पड़ने और उनके देखे जाने के बीच में जो सूक्ष्म काल हुआ वही 'क्षण' कहलाता है। दो क्षण का एक लव, दो लव का एक निमेष [आँख की पलक के गिरने में जितना काल लगता है], अठारह निमेष की काष्ठा, तीस काष्ठा की कला, तीस कला का मुहूर्त्त, साठ मुहूर्त्त का अहोरात्र (दिन रात), पन्द्रह अहोरात्र का पक्ष, दो पक्षका मास, दो मास का ऋतु, तीन ऋतु का अयन, दो अयन का वर्ष—इत्यादि किरणांवली में वर्णित है।

दिक्

सातवां द्रव्य दिक् है। जब हम लोग दो सूर्त्त पदार्थों को देखते हैं तब किसी एक को अवधि मान कर 'इससे वह द्रव्य पूर्व में है, वह पश्चिम में' इत्यादि ज्ञान होते हैं। इसी ज्ञान का असाधारण कारण दिक् है। काल और दिक् में यही मुख्य भेद है कि कालिकसम्बन्ध स्थिर रहता है और दैशिकसम्बन्ध बदलता है, अर्थात् दो भाइयों में किसकी उत्पत्ति पहले और किसकी बाद को, कौन जेठा है कौन छोटा, यह ज्ञान कभी बदल नहीं सकता। जो पहिले हो गया वह सदा पहि