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वैशेषिक दर्शन।

से त्रसरेणु इत्यादि बनते हैं। परन्तु वैशेषिकों का शुद्ध मत यही है कि दो परमाणु से द्वयणुक, तीन द्वयणुक से त्रसरेणु, चार द्वयणुक से चतुरणुक इत्यादि। जैसे जैसे गुण परमाणु में होंगे वैसे ही वैसे गुण उनसे बने हुए सब वस्तुओं में होंगे। अर्थात् जो गन्ध जो गुरुत्व इत्यादि पृथ्वीपरमाणु में हैं वे ही सब पार्थिव वस्तुओं में हैं। वैशेषिकों का सिद्धान्त हैं कि कारणगुण पूर्वक ही कार्य के गुण होते हैं। पृथ्वी वायु इत्यादि भूतों की बनी वस्तु नाना आकार नाना रूप की होती है इसका कारण यह है कि भिन्न भिन्न वस्तु के द्वयणुकों का या त्रसरेणुकों का संनिवेश, गठन, भिन्न भिन्न तरह का है। सामान्य रूप से यद्यपि वस्तुओं के गुण इस प्रकार तथापि तेज (अग्नि) के संबन्ध से वस्तुओं के गुण में फेर फार आ जाता है, जैसे कच्चा घड़ा पकाये जाने पर लाल हो जाता है। इसमें वैशेषिकों का यह मत है कि अग्नि की तेजी से घड़े के टुकड़े२ हो जाते हैं। इस तरह परमाणुओं का रङ्ग बदल कर लाल हो जाता है। ये लाल परमाणु आपस में मिल मिला कर घड़े के रूप से परिणत होते हैं। यह घड़े का नष्ट और उत्पन्न होना ऐसे सूक्ष्म काल में होता है कि हम लोग इसे देख नहीं सकते। यही मत 'पीलुपाक मत' कहलाता है। नैयायिकों का मत ऐसा नहीं है। उनका मत है कि इस प्रकार अदृश्य नाश और उत्पत्ति मानने की कुछ आवश्यकता नहीं है। सब वस्तु में परमाणुओं का या द्वयणुकों का संयोग इस प्रकार रहता है कि उनके बीच बीच में छिद्र रह जाते हैं। इन्हीं छिद्रों में अग्नि का तेज जाकर परमाणुओं का रूप बदल कर घट इत्यादि के रूप को बदल देता है (न्यायवार्तिक ३.१.४)।

(२) कई वस्तु ऐसी हैं जो कि एक ही भूत के बने हुए दो वस्तुओं के संयोग से उत्पन्न होकर उन दोनों वस्तुओं से भिन्न रूपादि गुण वाली उत्पन्न हो जाती हैं। जैसे शुक्र और शोणित के संयोग से शरीर उत्पन्न होता है। इसमें भी अग्नि के तेज के द्वारा शुक्रपिंड और शोणित पिण्ड दोनों खण्ड खण्ड होकर परमाणु रूप से अवस्थित होते हैं और फिर उसी तेज के बल से अपने खास खास गुण को खो कर एक सामान्य गुण का ग्रहण करते हैं। फिर परस्पर द्वयणुकादि क्रम से संयुक्त हो कर शरीर रूप से परिणत हो जाते हैं। यह तो एक