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वैशेषिक दर्शन।

सोना चांदी इत्यादि। भाम और दिव्य तेज का तेज होना तो साफ़ है। पेट की आग को आग इस लिये माना है कि बिना आग के किसी तरह का पाक नहीं हो सकता और बिना आग के गरमी भी नहीं उत्पन्न हो सकती; और हम देखते हैं कि पेट में जाकर अन्न पचता है, उसका रूपान्तर होता है और इस पचने से शरीर में गरमी पैदा होती है। इस से हम समझ सकते हैं कि पेट में आग है। सुवर्णादि धातु पिघल कर फिर पिछली ही अवस्था में रहते हैं न गरमी से ठोस ही हो जाते और न जल कर खाक ही होते हैं। इस से ये पृथिवी द्रव्य नहीं कहे जा सकते। इनका स्वरूप ठोस है इस से ये जल नहीं हो सकते। स्पर्श है इस से वायु नहीं। इस लिये इन को तेजस् अवश्य मानना चाहिये।

पदार्थ विद्या जिस अवस्था में प्राचीन समय में थी उसके अनुसार इस युक्ति का उत्तर नहीं हो सकता। पर अब हम लोग जानते हैं कि आज कल जितने गरमी पहुँचाने के यन्त्र हैं उनमें यदि सोना डाल दिया जाय तो भस्म हो जाता है। पुराने समय में भी रसायन शास्त्रवाले इनका भस्म करते थे पर यह भस्म औषधियों के द्वारा होता था इससे स्वतंत्र सोना भस्म होता है इस बात को वैशेषिकों ने नहीं स्वीकार किया।

तेजस् विषयों का एक और विभाग शंकर मिश्र ने काणादरहस्य में बतलाया है। (१) जिसका रूप और स्पर्श उद्‌भूत अर्थात् अनुभव योग्य हो, जैसे सूर्य का तेज। (२) जिसका रूप उद्‌भूत है पर स्पर्श अनुद्‌भूत, जैसे चन्द्रमा का तेज। (३) जिसके रूप और स्पर्श दोनों अनुद्‌भूत हैं जैसे आँखों का तेज। (४) जिसका रूप अनुद्‌भूत है और स्पर्श पूरे तौर पर उद्‌भूत, जैसे तपाई हुई मिट्टी की हांडी में या तपाए तेल में।

वायु।

जिस द्रव्यः में ऐसा स्पर्श है जो न गरम हो न ठंढा, वही वायु है। वायु के गुण हैं स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, संस्कार। वायु में रूप नहीं है। इससे पृथिवी, जल