पृष्ठ:वैशेषिक दर्शन.djvu/१०

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औलूक्य।

भी हैं, जैसे रूप, रस, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्य, संस्कार। सूत्र में (२.१.१.) 'रूप-रस-गंध-स्पर्शवती पृथिवी' ऐसा ही कहा है—पर भाष्य में ये चौदहों कहे हैं। रूप पृथिवी के शुक्ल आदि अनेक होते हैं। रस छः प्रकार के हैं—मीठा, खट्टा, लवण, कड़ुआ, तीता, कषाय। गंध दो प्रकार का है—सुगंध और दुर्गन्ध। स्पर्श इसका असल में न ठंढा ही है न गरम—परन्तु अग्नि के संयोग से बदलता रहता है।

पृथिवी दो प्रकार से संसार में पाई जाती है। नित्य और अनित्य। परमाणुरूप से नित्य और कार्य-स्थूल-वस्तु रूप से अनित्य। कार्य रूप पृथिवी से बनी हुई स्थूल चीज़ तीन प्रकार की होती है। शरीर, इन्द्रिय और विषय। आत्मा का भोगायतन—जिस आधार में रह कर आत्मा को सुख दुःख का भोग होता है उसको 'शरीर' कहते हैं। शरीर दो प्रकार के होते हैं—योनिज और अयोनिज। अयोनिज शरीर देवताओं और ऋषियों के होते हैं—इनके शरीर की उत्पत्ति में शुक्र शोणित संयोग की अपेक्षा नहीं होती। इनके धर्म का पृथिवी-परमाणुओं पर असर ऐसा पड़ता है कि इनके शरीर उत्पन्न हो जाते हैं। इसी तरह क्षुद्र कीड़े खटमल इत्यादि के शरीर भी बिना शुक्र शोणित संयोग ही के उत्पन्न होते हैं—केवल उनके अधर्म का असर पृथिवी परमाणुओं पर पड़ने से। शुक्र शोणित के मिलने से जो शरीर उत्पन्न होता है वही योनिज है। ये दो तरह के होते हैं। जरायुज, जैसे मनुष्यादि शरीर और अण्डज जैसे पक्षियों के शरीर।

जिस से संयुक्त होकर मन आत्मा का संयोग पाकर प्रत्यक्ष ज्ञान को उत्पन्न करता है उसी को इन्द्रिय कहते हैं। वैशेषिकों का मत है कि प्रत्यक्ष ज्ञान में जिस विषय का ज्ञान होता है उस का संयोग इन्द्रिय से होता है। फिर मन का संयोग उस इन्द्रिय से होता है, तब मन का संयोग आत्मा से होता है—तदनन्तर इस आत्मा में उस विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसीसे न्यायकंदली में (पृ॰ ३२) आत्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान का जो साधन या कारण है उसी को 'इन्द्रिय' कहा है। पृथिवी का बना हुआ इन्द्रिय वह है जिस से गन्ध का ग्रहण होता है—अर्थात् घ्राणेन्द्रिय—नाक। यह इन्द्रिय पृथिवी का