पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/९९

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सीखकर, मल्लों के गौरव की वृद्धि करने। और मेरा हस्तलाघव क्या कुशीनारा ने चार साल में देखा नहीं? गणपति ने इन चार वर्षों में जो गुरुतर राजकाज मुझे सौंपा, मैंने उसे सम्यक् पूर्ण किया, परन्तु गणसंस्था का मुझ पर सन्देह बना ही रहा प्रिये, मल्लों का सन्निपात जब जब हुआ, गणसदस्यों ने ईर्ष्यावश बाधा दी और मुझे उपसेनापति का पद भी मल्लों ने नहीं दिया। सदैव काली छन्द-शलाकाओं का ही बाहुल्य रहा सन्निपात में।"

मल्लिका ने सुराचषक भरा और कुरकुरा मांस-खण्ड भूनकर उसे पति को देते हुए कहा—"प्रिय, जाने दो, अमर्ष करने से क्या होगा! परन्तु कुशीनारा अपनी जन्मभूमि है।"

"जन्मभूमि? अपनी मां है, उसी से मेरा शरीर बना है। परन्तु कुशीनारा में तो मैं अब नहीं रहूंगा प्रिये, मेरी तो यहां आवश्यकता ही नहीं है। कितने ही सम्भ्रांत मल्ल मुझसे डाह करते हैं, क्योंकि उन्होंने मुझे सर्वप्रिय होते देखा है।"

"परन्तु इससे तो उन्हें प्रसन्न होना चाहिए था, उन पर तुम्हारे सभी अलौकिक गुण प्रकट हैं, क्या और भी किसी मल्ल ने तक्षशिला में इतना सम्मान पाया है?"

"नहीं," बन्धुल ने प्याला खाली करके एक ओर रख दिया और उदास दृष्टि से वह मल्लिका की ओर देखकर बोला—"मैंने इच्छा की थी, कि मल्लों को मगध की लोलुप दृष्टि से अभय करूंगा, परन्तु अब नहीं।"

"तो फिर प्रिय, रज्जुले की श्रावस्ती ही क्यों–लिच्छवियों की वैशाली क्यों नहीं? महाली लिच्छवि तो तुम्हारा परम मित्र है, तक्षशिला में वह तुम्हारा सहपाठी भी रहा है। वह उस दिन आया था तो तुम्हारे गुणों का बखान करते थकता न था। सुना है, वह वैशाली के नगर-द्वार रक्षकों का अध्यक्ष है।"

"जानता हूं प्रिये, परन्तु महाली तो सदैव ही बन्धुल की कृपा का भिखारी रहा है, आज बन्धुल अपनी लाज खोलकर उसके पास नहीं जाएगा। फिर लिच्छवियों का गण आज अम्बपाली के स्त्रैण युवकों का गण है, वहां सुरासुन्दरी ही प्रधान हैं, उसका संगठन भी नष्ट हो रहा है, उसका विनाश होगा प्रिये!"

"ऐसा न कहो प्रिय, यहां रज्जुलों के बीच हमारे जो दो-चार छोटे-छोटे गण हैं, उनमें वैशाली के लिच्छवियों ही का गण समृद्ध है।"

"परन्तु स्थायी नहीं प्रिये, इससे तो श्रावस्ती ही ठीक है। कोसल के राजा प्रसेनजित् के बहुत लेख आ चुके हैं। वह हमारा आदर करेगा। हम दस वर्ष तक्षशिला में साथ-साथ पढ़े हैं! वह मेरे गुणों और शक्ति को जानता है और उसे मेरी आवश्यकता है।"

"किन्तु प्रिय, तुम्हीं ने तो कहा—"मल्लों ने तुम्हारे गुणों से ईर्ष्या की है, तुम वहां भी क्या ईर्ष्या से बचे रहोगे? गुणी और सर्वप्रिय होना जैसा अभ्युदय का कारण है, वैसा ही ईर्ष्या का भी। फिर, वह पराया जनपद, वह भी रज्जुलों का, जहां हम गणपद के स्वतन्त्र जनों की थोड़ी भी आस्था नहीं है।"

"तुम्हारा कहना यथार्थ है। ईर्ष्या होगी तो फिर यह खड्ग तो है पर अभी श्रावस्ती ही चलना श्रेयस्कर है। कोसलपति पांच महाराज्यों का अधिपति है। वह मूर्ख, आलसी और कामुक है। शत्रुओं से घिरा है। उसे एक विश्वस्त और वीर सेनापति की आवश्यकता है। आशा है, वह हमारा समादर करेगा।"

"ऐसा ही सही प्रिय, बहुत विलम्ब हुआ, बहुत सुस्ता लिए, अब चलें।"