को देखने के लिए देवी अम्बपाली बहुत उत्सुक है।"
"यह किसलिए सेनापति?"
"उसने सुना है कि सिंह और उसके तरुण मित्रों ने उसकी उपेक्षा की है। देखते नहीं, वह गान्धारीकन्या देवकन्या–सी ऐसी अप्रतिम रूपज्योति लेकर वैशाली में आई है, जिससे अम्बपाली को ईर्ष्या हो सकती है।"
"ऐसा है, तब तो सेनापति, उस गान्धारीकन्या को भी भलीभांति देखना होगा।"
"सब कुछ देखो मित्र, आज यहां रूप की हाट लग रही है।"
"यह देखो, वे नायक शूरसेन और महापंडित भारद्वाज इधर ही को आ रहे हैं। खूब आए शूरसेन, आओ, मैं मित्र आश्वलायन श्रोत्रिय से तुम्हारा परिचय...।"
"हुआ, परन्तु सेनापति, देवी अम्बपाली अभी तक क्यों नहीं आईं—कह सकते हैं?"
"नहीं, नायक।"
"परन्तु वह आएंगी तो?"
"अवश्य आएंगी नायक शूरसेन, पर तुम उनके लिए इतने उत्सक क्यों हो?"
शूरसेन ने ही-ही-ही हंसते हुए कहा—"देखूंगा—एक बार देखूंगा। सुना है, उसने कोसल प्रसेनजित् को निराश कर दिया है।"
महापंडित भारद्वाज ने हाथ उठाकर नाटकीय ढंग से कहा—"अरे, वह वैशाली की यक्षिणी है। मैं उसे मन्त्रबल से बद्ध करूंगा।"
गणित और ज्योतिष के उद्भट ज्ञाता त्रिकालदर्शी सूर्यभट्ट ने अपने बड़े डील-डौल को पीछे से हिलाकर कहा—"मैं कहता हूं, महापंडित जन्म-जन्मांतर से उस यक्षिणी से आवेशित हैं।"
सबने लौटकर देखा, सूर्यभट्ट और महादार्शनिक गोपाल पीछे गम्भीर मुद्रा में खड़े हैं। सूर्यभट्ट की बात सुनकर दार्शनिक और तार्किक गोपाल बोले—"हो भी सकता है। नहीं भी हो सकता है। यह नहीं–कि नहीं हो सकता है।" इस पर सब हंस पड़े।
इन महार्घ पुरुषों के सामने की एक स्फटिक-शिला पर युवराज स्वर्णसेन, सूर्यमल्ल, सांधिविग्रहिक जयराज और आगार कोष्ठक सौभद्र बैठे थे।
युवराज ने कहा—"क्यों सौभद्र, क्या कारण है कि तुम कल रात मेरी पान-गोष्ठी में नहीं आए और यहां अभी से उपस्थित हो?"
"इसका कारण तो स्पष्ट है, वहां देवी अम्बपाली के आने की कोई संभावना नहीं थी और यहां अवश्य उनका दर्शन-लाभ होगा।"
"यह बात है? तो तुम कब से देवी अम्बपाली की कृपा के भिखारी बन गए?"
"कौन, मैं? मैं तो जन्म-जन्म से देवी की कृपा का भिखारी रहा हूं।"
उन्होंने सामने खड़े सूर्यभट्ट की ओर देखकर मुस्कराकर कहा—"परन्तु युवराज, हम उचित नहीं कर रहे हैं। हमें ज्ञातिपुत्र सिंह और उनकी पत्नी का अभिनन्दन करना चाहिए।"
"चाहिए तो, परन्तु अब समय कहां है? वह देवी अम्बपाली का आगमन हो रहा है।"