पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/९०

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रक्षक राजस्वर्णसेन, उनके मित्र सांधिविग्रहिक जयराज और अट्टवी-रक्षक महायुद्धवीर युवक सूर्यमल्ल का एक गुट था, जो हंस-हंसकर तरुणीजनों की व्याख्या, खासकर रोहिणी की रूप-ज्योति की अम्बपाली से तुलना करने में व्यस्त था। नगरपाल सौभद्र और उपनायक अजित ये दो तरुण घुसफुस अलग कुछ बातें कर रहे थे।

महिलाओं में उल्काचेल के शौल्किक की पत्नी रम्भा सबका ध्यान अपनी ओर आर्किषत कर रही थी। वह बसन्त की दोपहरी की भांति खिली हुई सुन्दरी थी। उसके हास्य-भरे होंठ, कटाक्ष-भरे नेत्र और मद-भरी चाल मन को मोहे बिना छोड़ती न थी। वह बड़ी मुंहफट, हाज़िरजवाब और चपला थी। एक प्रकार से जितनी लिच्छवि तरुणियां वहां उपस्थित थीं, वह उन सबकी नेत्री होकर गांधारी बहू रोहिणी को घेरे बैठी थी। उसके कारण क्षण-क्षण में तरुणी मण्डली से एक हंसी का ठहाका उठता था और गोष्ठी के लोग उधर देखने को विवश हो जाते थे। इसमें सन्देह नहीं कि रोहिणी एक दिव्यांगना थी और रूपच्छटा उसकी अद्वितीय थी, परन्तु एक असाधारण बाला भी यहां इस तरुणी-मण्डली में थी, जो लाजनवाई चुपचाप बैठी थी और कभी-कभी सिर्फ मुस्करा देती थी। उसकी लुनाई रोहणी से बिलकुल ही भिन्न थी। उसकी आंखें गहरी काली और ऐसी कटीली थीं कि उनके सामने आकर बिना घायल हुए बचने का कोई उपाय ही नहीं था। उसके केश अत्यन्त घने, काले और खूब चमकीले थे। गात्र का रंग नवीन केले के पत्ते के समान और चेहरा ताज़े सेब के समान रंगीन था। उसका उत्सुक यौवन, कोकिल-कण्ठ, मस्तानी चाल ये सब ऐसे थे जिनकी उपमा नहीं थी। पर इन सबसे अपूर्व सुषमा की खान उसकी व्रीड़ा थी। वह ओस से भरे हुए एक बड़े ताज़े गुलाब के फूल की भांति थी, जो अपने ही भार से नीचे झुक गया हो। इस भुवनमोहिनी कुमारी बाला का नाम मधु था और यह महाबलाधिकृत सुमन की इकलौती पुत्री थी।

इतने सम्मान्य अतिथिगण उद्यान में आ चुके थे और एक प्रहर रात्रि भी जा चुकी थी। भोज का समय लगभग हो चुका था, परन्तु एक असाधारण अतिथि नहीं आया था जिसकी प्रतीक्षा छोटे-बड़े सभी को थी वह थी देवी अम्बपाली। लोग कह रहे थे, आज यहां रूप का त्रिवेणी-संगम होगा।

सिंह को सम्मुख देखते ही नौबलाधिकृत चन्द्रभद्र दोनों हाथ फैलाकर आगे बढ़े। उन्होंने कहा—"स्वागत सिंह, वैशाली में तुम्हारा स्वागत है और गान्धारी स्रुषा का भी। आज आयुष्मान्, तुझे देखकर बहुत पुरानी बात याद आ गई। उस बात को आज बीस वर्ष बीत गए। पुत्र, तुम्हारे पिता अर्जुन तब महाबलाधिकृत थे और मैं उनका उपनायक था। उन्होंने किस प्रकार कमलद्वार पर सारी मागध सेना के हथियार रखवाए थे और एक नीच मागध बन्दी ने—जिसे तुम्हारे पिता ने कृपाकर जीवन-दान दिया था, धोखे से रात को मार डाला था। उस दिन हर्ष-विषाद के झूले में वैशाली झूली थी। पुत्र! वही मागध आज फिर अपनी लोल्प राज्यलिप्सा से हमारे गण को विषदृष्टि से देख रहे हैं।" सिंह ने हाथ उठाकर वृद्ध सेनापति का अभिवादन करके कहा—"भन्ते सेनापति, मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मागधों से पिता के प्राणों का मूल्य लूंगा, अपने रक्त की प्रत्येक बूंद देकर भी, एक सच्चे लिच्छवि तरुण की भांति।

"साधु सिंह, साधु, तो अब मुझे वृद्ध होने का खेद नहीं, परन्तु..."