अम्बपाली ने हंसकर कहा—"देव को महादेवी वासवदत्ता का भी तो लिहाज करना उचित था, जिन्होंने शकुन्तला और ऊषा से भी बढ़कर साहस किया है। परन्तु क्या सुश्री कलिंगसेना बहुत सुन्दरी हैं?"
"भद्रे, अम्बपाली, विश्व की स्त्रियों में तुम्हीं उसकी होड़ ले सकती हो। केवल नृत्य को छोड़कर, जिसमें तुम उससे बढ़ गईं। परन्तु मय असुर की कन्या की मित्रता से वह अक्षययौवना हो गई है। असुरनन्दिनी ने उसे विन्ध्य-गर्भ में स्थित मायापुरी में ले जाकर दिव्यौषध भक्षण कराया है, तथा माया के यन्त्रों से भरा पिटक भी दिया है। इससे वह अद्भुतकर्मिणी हो गई है। एक दिन वह अपनी सखी असुरनन्दिनी की सहायता से इन्हीं यन्त्रों के विमान पर चढ़कर कौशाम्बी में आ गई।"
"तो देव, घर–बैठे गंगा आई।"
"हुआ ऐसा ही भद्रे, किन्तु राजसम्पदा भी कैसा दुर्भाग्य है!"
"राजसम्पदा ने क्या बाधा दी महाराज?"
"ज्योंही मैंने सुना कि गान्धार कन्या कलिंगसेना स्वयंवर की इच्छा से आई है, मैंने आर्य यौगन्धरायण को उसका सत्कार करने और विवाह का मुहूर्त देखने को कहा। परन्तु आर्य यौगन्धरायण ने सोचा कि त्रैलोक्य-सुन्दरी कलिंगसेना पर आसक्त होकर राजा मोह में फंस जाएगा, देवी वासवदत्ता संतप्त हो शोक में प्राण दे देंगी। पद्मावती भी उनके बिना न रह सकेंगी, इससे चण्डमहासेन और महाराज प्रद्योत दोनों ही शत्रु हो जाएंगे। इन सब बातों को विचारकर उन्होंने देवी कलिंगसेना के सत्कार-निवास का तो समुचित प्रबन्ध कर दिया, परन्तु विवाह में टालमटोल करते रहे।
"उन्होंने कोसलपति और गान्धारराज दोनों ही को इसकी सूचना दे दी। कोसलपति ने सैन्य भेजकर गान्धारराज को विवश कर दिया। कोसलपति को नाराज़ करने की सामर्थ्य गान्धारपति में नहीं थी। वे न उसकी सैन्य का सामना कर सकते थे और न सुदूरपूर्व के व्यापार-वाणिज्य का मार्ग बन्द होना ही सहन कर सकते थे। उन्होंने पुत्री को अपनी कठिनाइयां बताईं, तो देवी कलिंगसेना ने पिता और जनपद के स्वार्थरक्षण के लिए बलि दे दी और विगलित-यौवन प्रसेनजित् से विवाह करना अंगीकार करने वे श्रावस्ती चली गईं।"
"पूजार्ह हैं देवी कलिंगसेना, देव!"
"पूजार्ह ही हैं भद्रे, परन्तु जनपद के लिए आत्मबलि देने वाली पूजार्ह अकेली देवी कलिंगसेना ही नहीं हैं, देवी अम्बपाली भी हैं।"
"देव कौशाम्बीपति के इस अनुग्रह-वचन से आप्यायित हुई।"
"तो भद्रे, अब मैं जाता हूं, तुम्हारा कल्याण हो। मेरा यह अनुरोध रखना, कि किसी मनुष्य के सम्मुख दिव्य नृत्य न करना, जब तक कि तीन ग्रामों में वीणावादन करने वाला कोई पुरुष न मिल जाए।"
"ऐसा ही होगा महाराज!"
उदयन तत्क्षण अन्तर्धान हो गए। अम्बपाली विमूढ़ भाव से आश्चर्यचकित हो उसे श्वेतमर्मर की पीठ पर बैठी देखती रही।