"ओह भद्रे, क्या मैंने नहीं कहा था, कि मेरा प्रेम वासना की अग्नि से जलता हुआ नहीं है? मैंने तुम्हें देखकर नेत्र सार्थक किए और तुम्हारा वह देवदुर्लभ नृत्य अपनी वीणाध्वनि के साथ अंगीभूत कर लिया।"
"देव कौशाम्बीपति, जब सम्पूर्ण जनपद मेरे चरणों में आंखें बिछाता है, लाखों प्राणधारी इन चरणों का चुम्बन करने को अपने प्राण भेंट देने को उत्सुक हैं, मेरी प्राप्ति के लिए जनपद में होड़, ईर्ष्या, निराशा और अभिलाषा का इतना संघर्ष हुआ है, कि इसके बोझ में पर्वत भी धसक जाएगा, तब क्या मैं आपका कुछ भी प्रिय नहीं कर सकती?"
"क्यों नहीं भद्रे, अम्बपाली, यदि मेरा प्रिय करना चाहती हो, तो मेरी यह साधारण स्नेह–भेंट स्वीकार करो, जिसे एक बार तुम अस्वीकार कर चुकी हो।"
यह कहकर महाराज उदयन ने अपने कण्ठ से वह अलौकिक मोतियों की माला उतारकर अम्बपाली के गले में डाल दी।
अम्बपाली ने कहा—"अनुगृहीत हुई, किन्तु क्या मैं अपना कौतूहल निवदेन करूं?"
"कहो भद्रे!"
"क्या मुझ-सी कोई स्त्री आपने देखी है?"
"देखी है, पर तुमसे श्रेष्ठ नहीं कल्याणी।"
"कौन है वह?"
"गान्धार कन्या कलिंगसेना।"
"उसमें त्रुटि क्या है?"
"तीनों ग्रामों पर नृत्य नहीं कर सकती।"
"क्या वह देव के सान्निध्य में है?"
"नहीं भद्रे, मैं उसे प्राप्त करके भी प्राप्त न कर सका।"
"प्राप्त करके भी प्राप्त न कर सके, देव!"
"ऐसा ही हुआ भद्रे।"
"कैसे देव, क्या देवी कलिंगसेना द्वितीय कामदेव के समान सुन्दर महाराज उदयन को प्यार नहीं कर सकीं—या तक्षशिला के महाराज ने इन्द्र के मित्र वात्स–नरेश सहस्रानीक के पुत्र को ही अयोग्य समझा, जिसके लिए देवराज इन्द्र अपना रथ भेजता था?"
"ऐसा नहीं हुआ भद्रे, इसमें कुछ कौतुक हुआ।"
"यदि देव कौतुक वर्णन करें तो अच्छा।"
"कहता हूं, सुनो। विगलित-यौवन कोसल-नरेश प्रसेनजित् ने गान्धारपति कलिंगसेन से उसे मांगा था। गान्धारपति राजतन्त्र के स्वार्थवश प्रसेनजित् को अप्रसन्न नहीं कर सकते थे। उन्होंने कोसलपति को कन्या देना स्वीकार कर लिया था। भाग्यविधि से कलिंगसेना की मित्रता मायासुर की कन्या सोभप्रभा से हो गई थी। उसी ने सखी के कल्याण की कामना से उससे कहा था कि—हेमन्त ऋतु की कमलिनी के समान तुम, उस चमेली के मुर्झाए हुए पुष्प प्रसेनजित् के योग्य नहीं हो। उसी ने उससे मेरा सत्यासत्य वर्णन करके उसे मेरे प्रति आकर्षित कर दिया था। मुझे भी इसकी सूचना मिल चुकी थी। परन्तु देवी अम्बपाली, मैं अवन्तीनरेश चण्डमहासेन को अप्रसन्न नहीं कर सकता था, इसी से गान्धारपति कलिंगसेन से मैंने उसकी दिव्य पुत्री नहीं मांगी।"