वर्षकार और मातंगी की शिक्षा का प्रबन्ध कर दिया। इस बालक वर्षकार के सम्बन्ध में केवल एक पागल अपवाद करता सुना गया था। वह कभी राजगृह में दिखाई दे जाता और पुकार-पुकारकर कहता—"देखो-देखो, इस पाखण्डी गोविन्द स्वामी को—इस बालक का मुंह इससे कितना मिलता है!" इसके बाद वह उन्मुक्त हास करता कहीं को भाग जाता था। गोविन्द स्वामी इस पागल से बहुत डरते थे। वह राजगृह में आया है, यह सुनकर वे बहुधा विचलित हो जाते थे। बहुत लोग सन्देह करने लगे थे कि हो न हो इस पागल से इस बालक का कुछ सम्बन्ध अवश्य है। एक बार तो यह अपवाद इस प्रकार स्पष्ट हो गया कि इसी पागल की परिणीता पत्नी से गोविन्द स्वामी ने जार करके यह पुत्र उत्पन्न किया है। इस पर क्रुद्ध होकर उसने पत्नी को मार डाला है और स्वयं पागल हो गया है। जो हो, सत्य बात कोई नहीं जानता था। मरने के समय गोविन्द स्वामी ने मातंगी से वर्षकार के विवाह का निषेध किया—इससे लोगों में शंका और घर कर गई। परन्तु गोविन्द स्वामी ने सम्राट से अति गोपनीय रीति से यह बात कही थी, इसी से वह बालक-बालिका दोनों ने सुनी भी नहीं। वही आठ वर्ष की बालिका मातंगी और ग्यारह वर्ष का बालक वर्षकार बाल-लीला समाप्त कर किशोर हुए और यौवन के प्रांगण में आ पहुंचे। युवक वर्षकार की तीक्ष्ण बुद्धि, प्रबल धारणा और बलिष्ठ देह, शस्त्र और शास्त्र में उसकी एकनिष्ठ सत्ता देख सभी उसका आदर करते थे। सम्राट् उसे पुत्रवत् समझते और राजवर्गी लोग उसकी अभ्यर्थना करते। युवराज बिम्बसार उसके अन्तरंग मित्र हो गए थे। दोनों बहुधा अश्व पर आखेट के लिए जाते, तथा भांति-भांति की क्रीड़ा करते। परन्तु उधर भीतर-ही-भीतर अनंग रंग जमा रहा था। देवी मातंगी का यौवन विकास पा रहा था और दोनों बालसखा परस्पर दूसरे ही भाव से एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हो रहे थे। यह देखकर सम्राट की चिन्ता बढ़ गई। परन्तु उन्होंने युवक-युवती से कुछ कहना ठीक नहीं समझा। केवल वर्षकार को राजकाज सीखने के बहाने मठ से हटाकर राजमहालय में बुलाकर रख लिया। वर्षकार महालय में रहने लगे, परन्तु इससे दोनों ही प्राणी वियोग-विदग्ध रहने लगे। देवी मातंगी का रूप-यौवन असाधारण था। निराभरणा तापसी के वेश में उसका शरीर तप्त कांचन की भांति दमकता था। युवराज बिम्बसार भी उस पर मन-ही-मन विमोहित हो, मठ में अधिक आने-जाने लगे थे। परन्तु शीघ्र ही वर्षकार ने ये आंखें ताड़ लीं और एक बार उन्होंने खड्ग नंगा करके कहा—"वयस्य युवराज, मगध का सम्पूर्ण साम्राज्य तुम्हारा है, केवल मातंगी मेरी है, इस पर दृष्टि मत देना। नहीं तो मेरे-तुम्हारे बीच यह खड्ग है।" बिम्बसार ने हंसकर और मित्र का हाथ पकड़कर कहा—"नहीं मित्र, मातंगी तुम्हारी ही रहे। चिन्ता न करो।" पीछे जब वर्षकार को सम्राट ने राजमहालय में बुलाकर रखा, तो युवराज को मातंगी के एकान्त साहचर्य का अधिक अवसर मिल गया। उनके ही अनुग्रह से वर्षकार भी अत्यन्त गुप्त भाव से मातंगी से मिलते रहते थे।
अकस्मात् मातंगी ने देखा कि वह गर्भवती है। वह अत्यन्त भयभीत हो गई। परन्तु गर्भ युवराज और वर्षकार दोनों में से किसके औरस से था, मातंगी ने यह भेद दोनों पर प्रकट नहीं किया। वर्षकार और युवराज दोनों ने मिलकर इस अवस्था को सम्राट् से छिपा लिया और जब शिशु का जन्म हुआ तो वर्षकार ने उसे हठ करके दासी द्वारा कूड़े के ढेर पर फेंक आने को कहा। उसे सन्देह था कि वह उसका पुत्र नहीं है। मातंगी ने बहुत निषेध किया,