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16. आर्या मातंगी

नगर के बाहर एक बहुत पुराना सूना मठ था। यह मठ गोविन्द स्वामी के मठ के नाम से प्रसिद्ध था। गोविन्द स्वामी अब नहीं हैं, केवल उनकी गद्दी है। राजगृह के आबालवृद्ध उस गद्दी की आज भी पूजा करते हैं। गोविन्द स्वामी वेदपाठी ब्राह्मण थे और उनके तप और दिव्य ज्ञान की बहुत गाथाएं राजगृह में प्रसिद्ध हैं। यह मठ बहुत विस्तार में था। कहते हैं कि जब राजगृह विद्यापीठ की स्थापना नहीं हुई थी तब इसी मठ में रहकर देश-देश के वटुक षडंग वेद का अध्ययन करते थे। यह भी कहा जाता है कि वर्तमान सम्राट् बिम्बसार के पिता को इन्हीं गोविन्द स्वामी ने अश्वमेध यज्ञ कराकर सम्राट् की उपाधि दी थी। यह भी कहा जाता है कि राजगृह का शिशुनाग-वंश असुरों का है। उन्हें आर्य धर्म में गोविन्द स्वामी ही ने प्रतिष्ठित किया और सर्वप्रथम 'सम्राटोऽयमिति सम्राटोऽयमिति' घोषित करके शिशुनागवंशी राजा को देवपद दिया। तभी से मगध के सम्राट् को 'देव' कहकर पुकारते हैं। सम्राट् के पिता गोविन्द स्वामी की बहुत पूजा, अर्चना तथा सम्मान करते थे। वे सदैव पांव–प्यादे उनसे मिलने जाते थे। उन्हीं के जीवन–काल में गोविन्द स्वामी की मृत्यु हुई। उस समय उन्होंने एक अबोध आठ वर्ष की बालिका अपने पीछे छोड़ी। उसे सम्राट् के हाथ में सौंपकर कहा था-'सम्राट् इसकी रक्षा का भार लें' और सम्राट् ने कहा था—'मेरे पुत्र बिम्बसार के बाद यही कन्या मेरी पुत्री है। राजपुत्री की भांति ही उसका लालन-पालन होगा।' परन्तु गोविन्द स्वामी ने कहा—'नहीं, नहीं सम्राट्! मातंगी का लालन-पालन ब्राह्मण-कन्या की ही भांति होना चाहिए और उसकी शिक्षा भी उसी प्रकार होनी चाहिए।' गोविन्द स्वामी की इस पुत्री के अतिरिक्त उनका एक शिष्य ब्राह्मण कुमार था। वह किसका पुत्र था, यह कोई नहीं जानता। सभी जानते थे कि गोविन्द स्वामी के किसी अतिप्रिय स्वजन का वह बालक है। गोविन्द स्वामी के पास वह बहुत छोटी अवस्था से था। उसका नाम वर्षकार था। वर्षकार और मातंगी साथ-ही-साथ बाल्यकाल में रहे। गोविन्द स्वामी ने बालक वर्षकार को भी, जो उस समय 11 वर्ष का था, सम्राट् को सौंपकर कहा—"यह मेरे एक अतिप्रिय आत्मीय का पुत्र है, इसके लक्षण राजपुरुषों के हैं और एक दिन यह बालक तुम्हारे साम्राज्य का कर्णधार होगा। इसकी शिक्षा-दीक्षा, देखभाल सावधानी से करना और इसे मगध का महामात्य बनाना।" परन्तु गोविन्द स्वामी ने अत्यन्त सतर्कता से सम्राट् से वचन ले लिया था कि वर्षकार और मातंगी दोनों ही अन्ततः इस मठ में उस समय तक रहें, जब तक दोनों का विवाह उपयुक्त समय पर उपयुक्त पात्रों से न हो जाए। सम्राट् के सन्देह करने पर गोविन्द स्वामी ने यह भी कह दिया था कि मातंगी के साथ कदापि वर्षकार का विवाह नहीं हो सकता। परन्तु मातंगी का विवाह उसके वयस्क होने पर उसकी स्वीकृति से ही किया जाना चाहिए।

गोविन्द स्वामी मर गए और सम्राट् ने भृत्यों और उपाध्यायों की व्यवस्था करके