उसने थोड़ी देर दीपक उठाकर तरुण को गौर से देखा, फिर उसके पतले सफेद होंठों पर मुस्कान आई। उसने यथासाध्य अपनी वाणी को कोमल बनाकर कहा––"अश्व को सामने उस गोवाट् में बांध दो, वहां एक बालक सो रहा है, उसे जगा दो—वह उसकी सब व्यवस्था कर देगा और तुम भीतर आओ।"
तरुण घोड़े से उतर पड़ा। उसने उस व्यक्ति के कहे अनुसार अश्व की व्यवस्था करके घर में प्रवेश किया। घर में प्रवेश करते ही वह सिहर उठा। एक विचित्र गंध उसमें भर रही थी। वहां का वातावरण ही अद्भुत था। भीतर एक बड़ा भारी खुला मैदान था। उसमें अन्धकार फैला हुआ था। कहीं भी जीवित व्यक्ति का चिह्न नहीं दीख रहा था। वही दीर्घकाय अस्थिकंकाल-सा पुरुष दीपक हाथ में लिए आगे-आगे चल रहा था और उसके पीछे-पीछे भय और उद्वेग से विमोहित-सा वह तरुण जा रहा था। उनके चलने का शब्द उन्हें ही चौंका रहा था। मठ के पश्चिम भाग में कुछ घर बने थे। उन्हीं की ओर वे जा रहे थे। निकट आने पर उसने उच्च स्वर से पुकारा––"सुन्दरम्!"
एक तरुण वटुक आंख मलता हुआ सामने की कुटीर से निकला। तरुण सुन्दर, बलिष्ठ और नवयुवक था। उसकी कमर में पीताम्बर और गले में स्वच्छ जनेऊ था। सिर पर बड़ी-सी चुटिया थी। युवक के हाथ में दीपक देकर दीर्घकाय व्यक्ति ने कहा––"इस आयुष्मान् की शयन-व्यवस्था यज्ञशाला में कर दो।" फिर उसने आगन्तुक की ओर घूमकर कहा––"प्रभात में और बात होगी। अभी मैं बहुत व्यस्त हूं।" इतना कह वह तेज़ी से अन्धकार में विलीन हो गया।
वटुक ने युवक से कहा––"आओ मित्र, इधर से।"
तरुण चुपचाप वटुक के पीछे-पीछे यज्ञशाला में गया। वहां एक मृगचर्म की ओर संकेत करके उसने कहा––"यह यथेष्ट होगा मित्र?"
"यथेष्ट होगा।"
वटुक जल्दी से एक ओर चला गया। थोड़ी देर में एक पात्र दूध से भरा तथा थोड़े मधुगोलक लेकर आया। उन्हें तरुण के सम्मुख रखकर कहा––"वहां पात्र में जल है, हाथ-मुंह धो लो, वस्त्र उतार डालो और यह थोड़ा आहार कर लो। बलि-मांस भी है, इच्छा हो तो लाऊं!"
"नहीं मित्र, यही यथेष्ट है। मैं बलि-मांस नहीं खाता।"
"तो मित्र, और कुछ चाहिए?"
"कुछ नहीं, धन्यवाद!"
वटुक चला गया और युवक ने अन्यमनस्क होकर वस्त्र उतारे, शस्त्रों को खूंटी पर टांग दिया। मधुगोलक खाकर दूध पिया और मृगचर्म पर बैठकर चुपचाप अन्धकार को देखने लगा। उसे अपने बाल्यकाल की विस्तृत स्मृतियां याद आने लगीं। आठ वर्ष की अवस्था में उसने यहीं से तक्षशिला को एक सार्थवाह के साथ प्रस्थान किया था। तब से अब तक अठारह वर्ष निरन्तर उसने तक्षशिला के विश्व-विश्रुत विद्यालय में विविध शास्त्रों का अध्ययन किया था। वह अतीत काल की बहुत-सी बातों को सोचने लगा। इन अठारह वर्षों में उसने केवल शस्त्राभ्यास और अध्ययन ही नहीं किया, पार्शपुर यवन देश तथा उत्तर कुरु तक यात्रा भी की। देवासुर-संग्राम में सक्रिय भाग लिया। पार्शपुर के शासनुशास से