आगे निकल राजपथ पर अपने बहुमूल्य शाल कोर्जव और कौशेय बिछाने लगे । तथागत महान् वीतराग भत्त्व , महाप्राण अर्हन्त जनपद जन के इस चण्ड जयघोष से तनिक भी विचलित न होकर स्थिर , पद पर पद रखते , सप्तभूमि प्रासाद की ओर बढ़े जा रहे थे। उनकी अधोदृष्टि जैसे पाताल तक घुस गई थी । पौर वधू झरोखों में लाजा - पुष्प तथागत पर फेंक रही थीं । सप्तभूमि -प्रासाद की सीढ़ियों को ताजे फूलों से ढांप दिया था । द्वार - कोष्ठक पर स्वयं देवी अम्बपाली शुभ्र - शुक्र नक्षत्र की भांति भगवत् के स्वागतार्थ खड़ी थी । उसने दूर तक भगवत् को आते देखा , देखते ही अगवानी कर भगवान् की वन्दना कर , आगे - आगे ही पैड़ियों तक ले गई। वहां जाकर भगवान् श्रमण पौर की निचली सीढ़ी पर खड़े हो गए । अम्बपाली ने कहा - “ भन्ते भगवान, भगवान् भीतर चलें , सुगत , सीढ़ियों पर चढ़ें । यह चिरकाल तक मेरे हित और सुख के लिए होगा । " तब तथागत सीढ़ियों पर चढ़े । अम्बपाली ने प्रासाद के सप्तम खण्ड में भोजन के लिए आसन बिछवाया । भगवान् बुद्ध संघ के साथ बिछे आसन पर बैठे । तब अम्बपाली ने बुद्ध- सहित भिक्षुसंघ को अपने हाथ से उत्तम खादनीय पदार्थों से संतर्पित किया , सन्तुष्ट किया । भगवान् के भोजन - पात्र पर से हाथ खींच लेने पर देवी अम्बपाली एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गई । एक ओर बैठी अम्बपाली को भगवान् ने धार्मिक कथा से सम्प्रहर्षित समुत्तेजित किया । अम्बपाली तब करबद्ध सामने आकर खड़ी हुई । भगवन् ने कहा - “ अम्बपाली, अब और तेरी क्या इच्छा है ? ” " भन्ते , भगवन् , एक भिक्षा चाहिए! " " वह क्या अम्बपाली ? " “ आज्ञा हो भन्ते , कोई भिक्षु अपना उत्तरीय मुझे प्रदान करें । " भगवन् ने आनन्द की ओर देखा। आनन्द ने अपना उत्तरीय उतारकर अम्बपाली को भेंट कर दिया । क्षणभर के लिए अम्बपाली भीतर गई । परन्तु दूसरे ही क्षण वह उसी उत्तरीय से अपने अंग ढांपे आ रही थी । कंचुक और कौशेय जो उसने धारण किया हुआ था , उतार डाला था । अब उसके अंग पर आनन्द के दिए हुए उत्तरीय को छोड़ और कुछ न था । न वस्त्र , न आभूषण, न श्रृंगार । उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधार बह रही थी । वह आकर भगवान् के सामने पृथ्वी पर लोट गई । भगवान् ने शुभहस्त से उसे स्पर्श करके कहा - “ उठ , उठ, कल्याणी, कह तेरी क्या इच्छा है? " " भन्ते भगवन् इस अधम - अपवित्र नारी की विडंबना कैसे बखान की जाय ! यह महानारी- शरीर कलंकित करके मैं जीवित रहने पर बाधित की गई , शुभ संकल्प से मैं वंचित रही। भगवन् , यह समस्त सम्पदा मेरी कलुषित तपश्चर्या का संचय है। मैं कितनी व्याकुल , कितनी कुण्ठित , कितनी शून्यहृदया रहकर अब तक जीवित रही हूं , यह कैसे कहूं? मेरे जीवन में दो ज्वलन्त दिन आए । प्रथम दिन के फलस्वरूप मैं आज मगध के भावी सम्राट की राजमाता हूं । परन्तु भगवन् आज के महान् पुण्य -योग के फलस्वरूप अब मैं इससे उच्च पद प्राप्त करने की धृष्ट अभिलाषा रखती हूं । भन्ते भगवन् प्रसन्न हों , जब भगवन् की चरण रज से यह आवास एक बार पवित्र हुआ , तब यहां अब विलास और पाप कैसा ? उसकी
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