किया है कि उनकी तुच्छ भेंट - स्वरूप मगध के भावी सम्राट् आपके चरणों में समर्पित हैं । " सम्राट ने शिशु को सिंहासन पर डालकर वृद्ध दण्डधर से उत्फुल्ल - नयन हो कहा “ मगध के भावी सम्राट का झटपट अभिवादन कर ! " दण्डधर ने कोष से खड्ग निकाल मस्तक पर लगा तीन बार मगध के भावी सम्राट का जयघोष किया और खड्ग सम्राट् के चरणों में रख दिया । सम्राट ने भी उच्च स्वर से खड्ग हवा में ऊंचा कर तीन बार मगध के भावी सम्राट का जयघोष किया और घण्ट पर आघात किया । देखते - ही - देखते प्रासाद के प्रहरी , रक्षक , कंचुकी , दण्डधर , दास -दासी दौड़ पड़े । सम्राट ने चिल्ला -चिल्लाकर उन्मत्त की भांति कहा " अभिवादन करो, आयोजन करो, आयोजन करो, गण- नक्षत्र मनाओ। मगध के भावी सम्राट का जय -जयकार करो! ” देखते - ही - देखते मागध प्रासाद हलचल का केन्द्र हो गया । विविध वाद्य बज उठे । सम्राट ने अपना रत्नजटित खड्ग वृद्ध दण्डधर की कमर में बांधते हुए कहा - "भणे, अपनी स्वामिनी को मेरी यह भेंट देना । ” यह कह एक और वस्तु वृद्ध के हाथ में चुपचाप दे दी । वह वस्तु क्या थी , यह ज्ञात होने का कोई उपाय नहीं । _ 10 वर्ष बीत गए । युवक वृद्ध हो गए , वृद्ध मर गए, बालक युवा हो गए । अम्बपाली अब अतीत का विषय हो गई । पुराण पुरुष युक्ति - अत्युक्ति द्वारा युद्ध और अम्बपाली की बहुत - सी कथाएं कहने - सुनने लगे । उनमें बहुत - सी अतिरंजित , बहुत - सी प्रकल्पित और बहुत - सी सत्य थीं । उन्हें सुन - सुनकर वैशाली के नवोदित तरुणों को कौतूहल होता। वे जब सप्तभूमि प्रासाद के निकट होकर आते - जाते , तो उसके बन्द , शून्य और अरक्षित अक्षोभनीय द्वार को उत्सुकता और कौतूहल से देखते । इन्हीं दीवारों के भीतर , इन्हीं अवरुद्ध गवाक्षों के उस ओर वह जनविश्रुत अम्बपाली रह रही हैं , किन्तु उसका दर्शन अब देव , दैत्य , मानव , किन्नर , यक्ष , रक्ष सभी को दुर्लभ है, इस रहस्य की विविध किंवदन्तियां घर - घर होने लगीं । श्रमण बुद्ध बहुत दिन बाद वैशाली में आए। आकर अम्बपाली की बाड़ी में ठहरे । अम्बपाली ने सुना । हठात् सप्तभूमि प्रासाद में जीवन के चिह्न देखे जाने लगे । दास - दासी , कम्मकर , कर्णिक , दण्डधर भाग - दौड़ करने लगे । दस वर्ष से अवरुद्ध सप्तभूमि प्रासाद का सिंहद्वार एक हल्की चीत्कार करके खुल गया और देखते - देखते सारी वैशाली में यह समाचार विद्युत् वेग से फैल गया - अम्बपाली भगवान् बुद्ध के दर्शनार्थ बाड़ी में जा रही है । दस वर्ष बाद वह सर्वसाधारण के समक्ष एक बार फिर बाहर आई है। लोग झुण्ड के झुण्ड प्रासाद के सिंह- पौर को घेरकर तथा राजमार्ग पर डट गए। आज के तरुणों ने कहा - आज उस अद्भुत देवी का दर्शन करेंगे। नवोढ़ा वधुओं ने कहा - देखेंगे, देवी का रूप कैसा है ! कल के तरुणों ने कहा - देखेंगे, अब वह कैसी हो गई है। हाथी , घोड़े, शिविका और सैनिक सज्जित हो -होकर आने लगे। अम्बपाली एक श्वेत हाथी पर आरूढ़ निरावरण एक श्वेत कौशेय उत्तरीय से सम्पूर्ण अंग ढांपे नतमुखी बैठी थी । उसका मुख पीत , दुर्बल किन्तु तेजपूर्ण था । जन - कोलाहल , भीड़ - भाड़ पौर- जनपद की लाजा -पुष्पवर्षा किसी ने भी उसका ध्यान भंग
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